01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कञ्ज।
मन्दिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुञ्ज॥24॥
मूल
दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कञ्ज।
मन्दिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुञ्ज॥24॥
भावार्थ
अन्दर जाकर उन्होन्ने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुन्दर मन्दिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है॥24॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा। पूछें निज बृत्तान्त सुनावा॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुन्दर फल नाना॥1॥
मूल
दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा। पूछें निज बृत्तान्त सुनावा॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुन्दर फल नाना॥1॥
भावार्थ
दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया। तब उसने कहा- जलपान करो और भाँति-भाँति के रसीले सुन्दर फल खाओ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥2॥
मूल
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥2॥
भावार्थ
(आज्ञा पाकर) सबने स्नान किया, मीठे फल खाए और फिर सब उसके पास चले आए। तब उसने अपनी सब कथा कह सुनाई (और कहा-) मैं अब वहाँ जाऊँगी जहाँ श्री रघुनाथजी हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढे सकल सिन्धु कें तीरा॥3॥
मूल
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढे सकल सिन्धु कें तीरा॥3॥
भावार्थ
तुम लोग आँखें मूँद लो और गुफा को छोडकर बाहर जाओ। तुम सीताजी को पा जाओगे, पछताओ नहीं (निराश न होओ)। आँखें मूँदकर फिर जब आँखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के तीर पर खडे हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्हीं। अनपायनी भगति प्रभु दीन्हीं॥4॥
मूल
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्हीं। अनपायनी भगति प्रभु दीन्हीं॥4॥
भावार्थ
और वह स्वयं वहाँ गई जहाँ श्री रघुनाथजी थे। उसने जाकर प्रभु के चरण कमलों में मस्तक नवाया और बहुत प्रकार से विनती की। प्रभु ने उसे अपनी अनपायिनी (अचल) भक्ति दी॥4॥