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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरन्त।
तब सुग्रीवँ बोलाए अङ्गद नल हनुमन्त॥22॥

मूल

बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरन्त।
तब सुग्रीवँ बोलाए अङ्गद नल हनुमन्त॥22॥

भावार्थ

सुग्रीव के वचन सुनते ही सब वानर तुरन्त जहाँ-तहाँ (भिन्न-भिन्न दिशाओं में) चल दिए। तब सुग्रीव ने अङ्गद, नल, हनुमान्‌ आदि प्रधान-प्रधान योद्धाओं को बुलाया (और कहा-)॥22॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु नील अङ्गद हनुमाना। जामवन्त मतिधीर सुजाना॥
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥1॥

मूल

सुनहु नील अङ्गद हनुमाना। जामवन्त मतिधीर सुजाना॥
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥1॥

भावार्थ

हे धीरबुद्धि और चतुर नील, अङ्गद, जाम्बवान्‌ और हनुमान! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीताजी का पता पूछना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचन्द्र कर काजु सँवारेहु॥
भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥2॥

मूल

मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचन्द्र कर काजु सँवारेहु॥
भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥2॥

भावार्थ

मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्री रामचन्द्रजी का कार्य सम्पन्न (सफल) करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से (सामने से) सेवन करना चाहिए, परन्तु स्वामी की सेवा तो छल छोडकर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भवसम्भव सोका॥
देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई॥3॥

मूल

तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भवसम्भव सोका॥
देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई॥3॥

भावार्थ

माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोडकर परलोक का सेवन (भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति के लिए भगवत्सेवा रूप साधन) करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएँ। हे भाई! देह धारण करने का यही फल है कि सब कामों (कामनाओं) को छोडकर श्री रामजी का भजन ही किया जाए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ गुनग्य सोई बडभागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी॥
आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥4॥

मूल

सोइ गुनग्य सोई बडभागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी॥
आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥4॥

भावार्थ

सद्गुणों को पहचानने वाला (गुणवान) तथा बडभागी वही है जो श्री रघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है। आज्ञा माँगकर और चरणों में फिर सिर नवाकर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए सब हर्षित होकर चले॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥

मूल

पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥

भावार्थ

सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्‌जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होन्ने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥

मूल

बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥

भावार्थ

(और कहा-) बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्‌जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चले॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥7॥

मूल

जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥7॥

भावार्थ

यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं (नीति की मर्यादा रखने के लिए सीताजी का पता लगाने को जहाँ-तहाँ वानरों को भेज रहे हैं)॥7॥