01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥16॥
मूल
चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥16॥
भावार्थ
(शरद् ऋतु पाकर) राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार और भिक्षा के लिए) हर्षित होकर नगर छोडकर चले। जैसे श्री हरि की भक्ति पाकर चारों आश्रम वाले (नाना प्रकार के साधन रूपी) श्रमों को त्याग देते हैं॥16॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥
मूल
सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥
भावार्थ
जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुञ्जत मधुकर मुखर अनूपा। सुन्दर खग रव नाना रूपा॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी॥2॥
मूल
गुञ्जत मधुकर मुखर अनूपा। सुन्दर खग रव नाना रूपा॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी॥2॥
भावार्थ
भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुन्दर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की सम्पत्ति देखकर दुष्ट को होता है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न सङ्कर द्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। सन्त दरस जिमि पातक टरई॥3॥
मूल
चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न सङ्कर द्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। सन्त दरस जिमि पातक टरई॥3॥
भावार्थ
पपीहा रट लगाए है, उसको बडी प्यास है, जैसे श्री शङ्करजी का द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता रहता है) शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चन्द्रमा हर लेता है, जैसे सन्तों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि इन्दु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥
मूल
देखि इन्दु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥
भावार्थ
चकोरों के समुदाय चन्द्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाडे के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥4॥