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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँ प्रबल बह मारुत
जहँ तहँ मेघ बिलाहिं+++(←विलय)+++।
जिमि कपूत के उपजें
कुल सद्-धर्म नसाहिं॥1॥

मूल

कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥1॥

भावार्थ

कभी-कभी वायु बडे जोर से चलने लगती है,
जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं।
जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहु दिवस महँ निबिड तम,
कबहुँक प्रगट पतङ्ग।
बिनसइ, उपजइ ग्यान जिमि
पाइ कुसङ्ग, सुसङ्ग॥2॥

मूल

कबहु दिवस महँ निबिड तम कबहुँक प्रगट पतङ्ग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसङ्ग सुसङ्ग॥2॥

भावार्थ

कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अन्धकार छा जाता है
और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं।
जैसे कुसङ्ग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसङ्ग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढाई॥1॥

मूल

बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढाई॥1॥

भावार्थ

हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुन्दर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढापा प्रकट किया है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदित अगस्ति पन्थ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ सन्तोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। सन्त हृदय जस गत मद मोहा॥2॥

मूल

उदित अगस्ति पन्थ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ सन्तोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। सन्त हृदय जस गत मद मोहा॥2॥

भावार्थ

अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे सन्तोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित सन्तों का हृदय!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खञ्जन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥

मूल

रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खञ्जन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥

भावार्थ

नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खञ्जन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुन्दर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पङ्क न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल सङ्कोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुम्बी जिमि धनहीना॥4॥

मूल

पङ्क न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल सङ्कोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुम्बी जिमि धनहीना॥4॥

भावार्थ

न कीचड है न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥

मूल

बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥

भावार्थ

बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोडकर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोडी-थोडी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥5॥