01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरित भूमि तृन सङ्कुल समुझि परहिं नहिं पन्थ।
जिमि पाखण्ड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रन्थ॥14॥
मूल
हरित भूमि तृन सङ्कुल समुझि परहिं नहिं पन्थ।
जिमि पाखण्ड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रन्थ॥14॥
भावार्थ
पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पडते। जैसे पाखण्ड मत के प्रचार से सद्ग्रन्थ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं॥14॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।
बेद पढहिं जनु बटु-समुदाई॥
नव-पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक-मन जस मिलें बिबेका॥1॥
मूल
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढहिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥
भावार्थ
चारों दिशाओं में मेण्ढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्क जवास पात+++(=पत्र)+++ बिनु भयऊ।
जस सुराज +++(मेँ)+++ खल-उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी+++(=धूली)+++।
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥2॥+++(5)+++
मूल
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥2॥
भावार्थ
मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए (उनके पत्ते झड गए)।
जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम जाता रहा (उनकी एक भी नहीं चलती)।
धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है। (अर्थात् क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता)॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससि-सम्पन्न सोह+++(=शोभ)+++ महि+++(=मही)+++ कैसी।
उपकारी कै सम्पति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा।
जनु+++(=जानो)+++ दम्भिन्ह कर मिला समाजा॥3॥
मूल
ससि सम्पन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै सम्पति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दम्भिन्ह कर मिला समाजा॥3॥
भावार्थ
अन्न से युक्त (लहराती हुई खेती से हरी-भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है,
जैसी उपकारी पुरुष की सम्पत्ति।
रात के घने अन्धकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं,
मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाबृष्टि चलि, फूटि किआरीं+++(← केदार)+++।
जिमि सुतन्त्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
+++(सस्य-वृद्ध्य्-आनुकूल्याय)+++
कृषी निरावहिं+++(→तृण-निष्कासन)+++ चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह-मद-माना॥4॥
मूल
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतन्त्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥4॥
भावार्थ
भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतन्त्र होने से स्त्रियाँ बिगड जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेङ्क रहे हैं।) जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं।
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं+++(=पलायि)+++॥
ऊषर बरषइ, तृन नहिं जामा+++(=जन्मा)+++।
जिमि हरि-जन हियँ+++(=हृदये)+++ उपज न कामा+++(=कामः)+++॥5॥
मूल
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥5॥
भावार्थ
चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं,
जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं।
ऊसर में वर्षा होती है,
पर वहाँ घास तक नहीं उगती।
जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिबिध-जन्तु-सङ्कुल महि+++(मही)+++ भ्राजा।
प्रजा बाढ जिमि पाइ सुराजा॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना।
जिमि इन्द्रिय-गन +++(जब)+++ उपजें ग्याना॥6॥
मूल
बिबिध जन्तु सङ्कुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ जिमि पाइ सुराजा॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इन्द्रिय गन उपजें ग्याना॥6॥
भावार्थ
पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई
उसी तरह शोभायमान है,
जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है।
जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं,
जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्रियाँ (शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड देती हैं)॥6॥