01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अन्तकाल गति तोरि॥9॥
मूल
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अन्तकाल गति तोरि॥9॥
भावार्थ
(बालि ने कहा-) हे श्री रामजी! सुनिए, स्वामी (आप) से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो! अन्तकाल में आपकी गति (शरण) पाकर मैं अब भी पापी ही रहा?॥9॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥1॥
मूल
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥1॥
भावार्थ
बालि की अत्यन्त कोमल वाणी सुनकर श्री रामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया (और कहा-) मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँ, तुम प्राणों को रखो। बालि ने कहा- हे कृपानिधान! सुनिए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अन्त राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल सङ्कर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥2॥
मूल
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अन्त राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल सङ्कर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥2॥
भावार्थ
मुनिगण जन्म-जन्म में (प्रत्येक जन्म में) (अनेकों प्रकार का) साधन करते रहते हैं। फिर भी अन्तकाल में उन्हें ‘राम’ नहीं कह आता (उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता)। जिनके नाम के बल से शङ्करजी काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम लोचन गोचर सोई आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥3॥
मूल
मम लोचन गोचर सोई आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥3॥
भावार्थ
वह श्री रामजी स्वयं मेरे नेत्रों के सामने आ गए हैं। हे प्रभो! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पडेगा॥3॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही॥1॥
मूल
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही॥1॥
भावार्थ
श्रुतियाँ ‘नेति-नेति’ कहकर निरन्तर जिनका गुणगान करती रहती हैं तथा प्राण और मन को जीतकर एवं इन्द्रियों को (विषयों के रस से सर्वथा) नीरस बनाकर मुनिगण ध्यान में जिनकी कभी क्वचित् ही झलक पाते हैं, वे ही प्रभु (आप) साक्षात् मेरे सामने प्रकट हैं। आपने मुझे अत्यन्त अभिमानवश जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो, परन्तु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्ष को काटकर उससे बबूर के बाड लगाएगा (अर्थात् पूर्णकाम बना देने वाले आपको छोडकर आपसे इस नश्वर शरीर की रक्षा चाहेगा?)॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अङ्गद कीजिये॥2॥
मूल
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अङ्गद कीजिये॥2॥
भावार्थ
हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं श्री रामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अङ्गद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ! बाँह पकडकर इसे अपना दास बनाइए ॥2॥