07

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥7॥

मूल

कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥7॥

भावार्थ

बालि ने कहा- हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित्‌ वे मुझे मारेङ्गे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥7॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी॥
भिरे उभौ बाली अति तर्जा। मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥1॥

मूल

अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी॥
भिरे उभौ बाली अति तर्जा। मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर वह महान्‌ अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड गए। बालि ने सुग्रीव को बहुत धमकाया और घूँसा मारकर बडे जोर से गरजा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा॥
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बन्धु न होइ मोर यह काला॥2॥

मूल

तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा॥
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बन्धु न होइ मोर यह काला॥2॥

भावार्थ

तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। घूँसे की चोट उसे वज्र के समान लगी (सुग्रीव ने आकर कहा-) हे कृपालु रघुवीर! मैन्ने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है, काल है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक रूप तुम्ह भ्राता दोऊ तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥
कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥3॥

मूल

एक रूप तुम्ह भ्राता दोऊ तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥
कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥3॥

भावार्थ

(श्री रामजी ने कहा-) तुम दोनों भाइयों का एक सा ही रूप है। इसी भ्रम से मैन्ने उसको नहीं मारा। फिर श्री रामजी ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया, जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीडा जाती रही॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेली कण्ठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥
पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई॥4॥

मूल

मेली कण्ठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥
पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई॥4॥

भावार्थ

तब श्री रामजी ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डाल दी और फिर उसे बडा भारी बल देकर भेजा। दोनों में पुनः अनेक प्रकार से युद्ध हुआ। श्री रघुनाथजी वृक्ष की आड से देख रहे थे॥4॥