01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥6॥
मूल
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥6॥
भावार्थ
(उन्होन्ने कहा-) हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूँगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेङ्गे॥6॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥
मूल
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥
भावार्थ
जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बडा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बडे भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपन्थ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥
मूल
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपन्थ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥
भावार्थ
जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देत लेत मन सङ्क न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा॥3॥
मूल
देत लेत मन सङ्क न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा॥3॥
भावार्थ
देने-लेने में मन में शङ्का न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि सन्त (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
मूल
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
भावार्थ
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
मूल
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
भावार्थ
मूर्ख सेवक, कञ्जूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीडा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिन्ता छोड दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुन्दुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥6॥
मूल
दुन्दुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥6॥
भावार्थ
सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान् बलवान् और अत्यन्त रणधीर है। फिर सुग्रीव ने श्री रामजी को दुन्दुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए। श्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि अमित बल बाढी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥7॥
मूल
देखि अमित बल बाढी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥7॥
भावार्थ
श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेङ्गे। वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे। प्रभु को पहचानकर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥
सुख सम्पति परिवार बडाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥8॥
मूल
उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥
सुख सम्पति परिवार बडाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥8॥
भावार्थ
जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, सम्पत्ति, परिवार और बडाई (बडप्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ए सब राम भगति के बाधक। कहहिं सन्त तव पद अवराधक॥
सत्रु मित्र सुख, दुख जग माहीं। मायाकृत परमारथ नाहीं॥9॥
मूल
ए सब राम भगति के बाधक। कहहिं सन्त तव पद अवराधक॥
सत्रु मित्र सुख, दुख जग माहीं। मायाकृत परमारथ नाहीं॥9॥
भावार्थ
क्योङ्कि आपके चरणों की आराधना करने वाले सन्त कहते हैं कि ये सब (सुख-सम्पत्ति आदि) राम भक्ति के विरोधी हैं। जगत् में जितने भी शत्रु-मित्र और सुख-दुःख (आदि द्वन्द्व) हैं, सब के सब मायारचित हैं, परमार्थतः (वास्तव में) नहीं हैं॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥
सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई॥10॥
मूल
बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥
सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई॥10॥
भावार्थ
हे श्री रामजी! बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे मिले और जिसके साथ अब स्वप्न में भी लडाई हो तो जागने पर उसे समझकर मन में सङ्कोच होगा (कि स्वप्न में भी मैं उससे क्यों लडा)॥10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
सुनि बिराग सञ्जुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥11॥
मूल
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
सुनि बिराग सञ्जुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥11॥
भावार्थ
हे प्रभो अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोडकर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर (उसके क्षणिक वैराग्य को देखकर) हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री रामजी मुस्कुराकर बोले- ॥11॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई॥
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥12॥
मूल
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई॥
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥12॥
भावार्थ
तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य है, परन्तु हे सखा! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता (अर्थात् बालि मारा जाएगा और तुम्हें राज्य मिलेगा)। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि-) हे पक्षियों के राजा गरुड! नट (मदारी) के बन्दर की तरह श्री रामजी सबको नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं॥12॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लै सुग्रीव सङ्ग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥13॥
मूल
लै सुग्रीव सङ्ग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥13॥
भावार्थ
तदनन्तर सुग्रीव को साथ लेकर और हाथों में धनुष-बाण धारण करके श्री रघुनाथजी चले। तब श्री रघुनाथजी ने सुग्रीव को बालि के पास भेजा। वह श्री रामजी का बल पाकर बालि के निकट जाकर गरजा॥13॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बन्धु तेज बल सींवा॥14॥
मूल
सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बन्धु तेज बल सींवा॥14॥
भावार्थ
बालि सुनते ही क्रोध में भरकर वेग से दौडा। उसकी स्त्री तारा ने चरण पकडकर उसे समझाया कि हे नाथ! सुनिए, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं॥14॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं सङ्ग्रामा॥15॥
मूल
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं सङ्ग्रामा॥15॥
भावार्थ
वे कोसलाधीश दशरथजी के पुत्र राम और लक्ष्मण सङ्ग्राम में काल को भी जीत सकते हैं॥15॥