04

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब हनुमन्त उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढाइ॥4॥

मूल

तब हनुमन्त उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढाइ॥4॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ करके प्रीति जोड दी (अर्थात्‌ अग्नि की साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥4॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित्‌ सब भाषा॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥1॥

मूल

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित्‌ सब भाषा॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥1॥

भावार्थ

दोनों ने (हृदय से) प्रीति की, कुछ भी अन्तर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजी ने श्री रामचन्द्रजी का सारा इतिहास कहा। सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा- हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जाएँगी॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥
गगन पन्थ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता॥2॥

मूल

मन्त्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥
गगन पन्थ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता॥2॥

भावार्थ

मैं एक बार यहाँ मन्त्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैन्ने पराए (शत्रु) के वश में पडी बहुत विलाप करती हुई सीताजी को आकाश मार्ग से जाते देखा था॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥3॥

मूल

राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥3॥

भावार्थ

हमें देखकर उन्होन्ने ‘राम! राम! हा राम!’ पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था। श्री रामजी ने उसे माँगा, तब सुग्रीव ने तुरन्त ही दे दिया। वस्त्र को हृदय से लगाकर रामचन्द्रजी ने बहुत ही सोच किया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥4॥

मूल

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥4॥

भावार्थ

सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए। सोच छोड दीजिए और मन में धीरज लाइए। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूँगा, जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें॥4॥