01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमन्त।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त॥3॥
मूल
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमन्त।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त॥3॥
भावार्थ
और हे हनुमान्! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड-चेतन) जगत् मेरे स्वामी भगवान् का रूप है॥3॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
मूल
देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
भावार्थ
स्वामी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होन्ने कहा-) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
मूल
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
भावार्थ
हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोडों वानरों को भेजेगा॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढाई॥
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥3॥
मूल
एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढाई॥
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥3॥
भावार्थ
इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमान्जी ने (श्री राम-लक्ष्मण) दोनों जनों को पीठ पर चढा लिया। जब सुग्रीव ने श्री रामचन्द्रजी को देखा तो अपने जन्म को अत्यन्त धन्य समझा॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भेण्टेउ अनुज सहित रघुनाथा॥
कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती॥4॥
मूल
सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भेण्टेउ अनुज सहित रघुनाथा॥
कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती॥4॥
भावार्थ
सुग्रीव चरणों में मस्तक नवाकर आदर सहित मिले। श्री रघुनाथजी भी छोटे भाई सहित उनसे गले लगकर मिले। सुग्रीव मन में इस प्रकार सोच रहे हैं कि हे विधाता! क्या ये मुझसे प्रीति करेङ्गे?॥4॥