01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुनागार संसार दुख रहित बिगत सन्देह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥45॥
मूल
गुनागार संसार दुख रहित बिगत सन्देह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥45॥
भावार्थ
गुणों के घर, संसार के दुःखों से रहित और सन्देहों से सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोडकर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही॥45॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥
मूल
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥
भावार्थ
कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप ब्रत दम सञ्जम नेमा। गुरु गोबिन्द बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥
मूल
जप तप ब्रत दम सञ्जम नेमा। गुरु गोबिन्द बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥
भावार्थ
वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविन्द तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दम्भ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥
मूल
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दम्भ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥
भावार्थ
तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्व का ज्ञान) और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥
मूल
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥
भावार्थ
सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते हैं। हे मुनि! सुनो, सन्तों के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पङ्कज गहे।
अस दीनबन्धु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
मूल
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पङ्कज गहे।
अस दीनबन्धु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
भावार्थ
‘शेष और शारदा भी नहीं कह सकते’ यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड लिए। दीनबन्धु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान् के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोडकर केवल श्री हरि के रङ्ग में रँग गए हैं।