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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि॥41॥

मूल

नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि॥41॥

भावार्थ

बहुत प्रकार से विनती करके और प्रभु को मन में प्रसन्न जानकर तब नारदजी कमल के समान हाथों को जोडकर वचन बोले-॥41॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुन्दर अगम सुगम बर दायक॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अन्तरजामी॥1॥

मूल

सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुन्दर अगम सुगम बर दायक॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अन्तरजामी॥1॥

भावार्थ

हे स्वभाव से ही उदार श्री रघुनाथजी! सुनिए। आप सुन्दर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ, वह मुझे दीजिए, यद्यपि आप अन्तर्यामी होने के नाते सब जानते ही हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥

मूल

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥

भावार्थ

(श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूँ? मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है, जिसे हे मुनिश्रेष्ठ! तुम नहीं माँग सकते?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥

मूल

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥

भावार्थ

मुझे भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं है। ऐसा विश्वास भूलकर भी मत छोडो। तब नारदजी हर्षित होकर बोले- मैं ऐसा वर माँगता हूँ, यह धृष्टता करता हूँ-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥

मूल

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥

भावार्थ

यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढकर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढकर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो॥4॥