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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसम्पति पाइ॥40॥

मूल

फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसम्पति पाइ॥40॥

भावार्थ

फलों के बोझ से झुककर सारे वृक्ष पृथ्वी के पास आ लगे हैं, जैसे परोपकारी पुरुष बडी सम्पत्ति पाकर (विनय से) झुक जाते हैं॥40॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥
देखी सुन्दर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥

मूल

देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥
देखी सुन्दर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी ने अत्यन्त सुन्दर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुन्दर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघुनाथजी छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित बैठ गए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥

मूल

तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥

भावार्थ

फिर वहाँ सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने-अपने धाम को चले गए। कृपालु श्री रामजी परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मणजी से रसीली कथाएँ कह रहे हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरहवन्त भगवन्तहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी॥
मोर साप करि अङ्गीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥3॥

मूल

बिरहवन्त भगवन्तहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी॥
मोर साप करि अङ्गीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥3॥

भावार्थ

भगवान्‌ को विरहयुक्त देखकर नारदजी के मन में विशेष रूप से सोच हुआ। (उन्होन्ने विचार किया कि) मेरे ही शाप को स्वीकार करके श्री रामजी नाना प्रकार के दुःखों का भार सह रहे हैं (दुःख उठा रहे हैं)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई॥
यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥4॥

मूल

ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई॥
यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥4॥

भावार्थ

ऐसे (भक्त वत्सल) प्रभु को जाकर देखूँ। फिर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह विचार कर नारदजी हाथ में वीणा लिए हुए वहाँ गए, जहाँ प्रभु सुखपूर्वक बैठे हुए थे॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥
करत दण्डवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥5॥

मूल

गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥
करत दण्डवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥5॥

भावार्थ

वे कोमल वाणी से प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान-बखान कर रामचरित का गान कर (ते हुए चले आ) रहे थे। दण्डवत्‌ करते देखकर श्री रामचन्द्रजी ने नारदजी को उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगाए रखा॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे॥6॥

मूल

स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे॥6॥

भावार्थ

फिर स्वागत (कुशल) पूछकर पास बैठा लिया। लक्ष्मणजी ने आदर के साथ उनके चरण धोए॥6॥