01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥1॥
मूल
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥1॥
भावार्थ
हे तात! काम, क्रोध और लोभ- ये तीन अत्यन्त दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभ कें इच्छा दम्भ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥2॥
मूल
लोभ कें इच्छा दम्भ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥2॥
भावार्थ
लोभ को इच्छा और दम्भ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बाल है, श्रेष्ठ मुनि विचार कर ऐसा कहते हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अन्तरजामी॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढाई॥1॥
मूल
गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अन्तरजामी॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढाई॥1॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी गुणातीत (तीनों गुणों से परे), चराचर जगत् के स्वामी और सबके अन्तर की जानने वाले हैं। (उपर्युक्त बातें कहकर) उन्होन्ने कामी लोगों की दीनता (बेबसी) दिखलाई है और धीर (विवेकी) पुरुषों के मन में वैराग्य को दृढ किया है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया॥
सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥2॥
मूल
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया॥
सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥2॥
भावार्थ
क्रोध, काम, लोभ, मद और माया- ये सभी श्री रामजी की दया से छूट जाते हैं। वह नट (नटराज भगवान्) जिस पर प्रसन्न होता है, वह मनुष्य इन्द्रजाल (माया) में नहीं भूलता॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पम्पा नाम सुभग गम्भीरा॥3॥
मूल
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पम्पा नाम सुभग गम्भीरा॥3॥
भावार्थ
हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी पम्पा नामक सुन्दर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥4॥
मूल
सन्त हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥4॥
भावार्थ
उसका जल सन्तों के हृदय जैसा निर्मल है। मन को हरने वाले सुन्दर चार घाट बँधे हुए हैं। भाँति-भाँति के पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे हैं। मानो उदार दानी पुरुषों के घर याचकों की भीड लगी हो!॥4॥