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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामन्द मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥36॥

मूल

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामन्द मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥36॥

भावार्थ

जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होन्ने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है?॥36॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक सम्बादा॥1॥

मूल

चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक सम्बादा॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने उस वन को भी छोड दिया और वे आगे चले। दोनों भाई अतुलनीय बलवान्‌ और मनुष्यों में सिंह के समान हैं। प्रभु विरही की तरह विषाद करते हुए अनेकों कथाएँ और संवाद कहते हैं-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥
नारि सहित सब खग मृग बृन्दा। मानहुँ मोरि करत हहिं निन्दा॥2॥

मूल

लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥
नारि सहित सब खग मृग बृन्दा। मानहुँ मोरि करत हहिं निन्दा॥2॥

भावार्थ

हे लक्ष्मण! जरा वन की शोभा तो देखो। इसे देखकर किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा? पक्षी और पशुओं के समूह सभी स्त्री सहित हैं। मानो वे मेरी निन्दा कर रहे हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं॥
तुम्ह आनन्द करहु मृग जाए। कञ्चन मृग खोजन ए आए॥3॥

मूल

हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं॥
तुम्ह आनन्द करहु मृग जाए। कञ्चन मृग खोजन ए आए॥3॥

भावार्थ

हमें देखकर (जब डर के मारे) हिरनों के झुण्ड भागने लगते हैं, तब हिरनियाँ उनसे कहती हैं- तुमको भय नहीं है। तुम तो साधारण हिरनों से पैदा हुए हो, अतः तुम आनन्द करो। ये तो सोने का हिरन खोजने आए हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्ग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं॥
सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥4॥

मूल

सङ्ग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं॥
सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥4॥

भावार्थ

हाथी हथिनियों को साथ लगा लेते हैं। वे मानो मुझे शिक्षा देते हैं (कि स्त्री को कभी अकेली नहीं छोडना चाहिए)। भलीभाँति चिन्तन किए हुए शास्त्र को भी बार-बार देखते रहना चाहिए। अच्छी तरह सेवा किए हुए भी राजा को वश में नहीं समझना चाहिए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसन्त सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥5॥

मूल

राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसन्त सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥5॥

भावार्थ

और स्त्री को चाहे हृदय में ही क्यों न रखा जाए, परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते। हे तात! इस सुन्दर वसन्त को तो देखो। प्रिया के बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है॥5॥