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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर पद पङ्कज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

मूल

गुर पद पङ्कज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

भावार्थ

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोडकर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा। पञ्चम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा॥1॥

मूल

मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा। पञ्चम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा॥1॥

भावार्थ

मेरे (राम) मन्त्र का जाप और मुझमें दृढ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर सन्त पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥

मूल

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥

भावार्थ

सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और सन्तों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥

मूल

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥

भावार्थ

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड-चेतन कोई भी हो-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ तोरें॥
जोगि बृन्द दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥

मूल

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ तोरें॥
जोगि बृन्द दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥

भावार्थ

हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥

मूल

मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥

भावार्थ

मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पम्पा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥

मूल

पम्पा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥

भावार्थ

(शबरी ने कहा-) हे रघुनाथजी! आप पम्पा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं!॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥7॥

मूल

बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥7॥

भावार्थ

बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर, प्रेम सहित उसने सब कथा सुनाई॥7॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पङ्कज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

मूल

कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पङ्कज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

भावार्थ

सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।