01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कन्द मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारम्बार बखानि॥34॥
मूल
कन्द मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारम्बार बखानि॥34॥
भावार्थ
उन्होन्ने अत्यन्त रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया॥34॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पानि जोरि आगें भइ ठाढी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जडमति भारी॥1॥
मूल
पानि जोरि आगें भइ ठाढी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जडमति भारी॥1॥
भावार्थ
फिर वे हाथ जोडकर आगे खडी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ गया। (उन्होन्ने कहा-) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यन्त मूढ बुद्धि हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
मूल
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
भावार्थ
जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यन्त अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मन्दबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का सम्बन्ध मानता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाति पाँति कुल धर्म बडाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥
मूल
जाति पाँति कुल धर्म बडाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥
भावार्थ
जाति, पाँति, कुल, धर्म, बडाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पडता है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा। दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा॥4॥
मूल
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा। दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा॥4॥
भावार्थ
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है सन्तों का सत्सङ्ग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसङ्ग में प्रेम॥4॥