01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन क्रम बचन कपट तजि
जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरञ्चि सिव
बस ताकें सब देव॥33॥
मूल
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरञ्चि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
भावार्थ
मन, वचन और कर्म से कपट छोडकर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश हो जाते हैं॥33॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
“सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य” - अस गावहिं संता॥
“पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न, +++(यद्य् अपि)+++ गुन गन ग्यान प्रबीना”॥1॥
मूल (चौपाई)
सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥
भावार्थ
शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी
ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं।
शील और गुणसे हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है।
और गुणगणोंसे युक्त और ज्ञानमें निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
मूल
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
भावार्थ
श्री रामजी ने अपना धर्म (भागवत धर्म) कहकर उसे समझाया। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को भाया। तदनन्तर श्री रघुनाथजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति (गन्धर्व का स्वरूप) पाकर आकाश में चला गया॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥
मूल
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥
भावार्थ
उदार श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचन्द्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतङ्गजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥
मूल
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥
भावार्थ
कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुन्दर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पडीं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे॥5॥
मूल
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे॥5॥
भावार्थ
वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होन्ने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया॥5॥