01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
मूल
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
भावार्थ
अखण्ड भक्ति का वर माँगकर गृध्रराज जटायु श्री हरि के परमधाम को चला गया। श्री रामचन्द्रजी ने उसकी (दाहकर्म आदि सारी) क्रियाएँ यथायोग्य अपने हाथों से कीं॥32॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
मूल
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी अत्यन्त कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहू उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥2॥
मूल
सुनहू उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥2॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! सुनो, वे लोग अभागे हैं, जो भगवान् को छोडकर विषयों से अनुराग करते हैं। फिर दोनों भाई सीताजी को खोजते हुए आगे चले। वे वन की सघनता देखते जाते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्कुल लता बिटप घन कानन।
बहु खग मृग तहँ गज पञ्चानन॥
आवत पन्थ, कबन्ध निपाता।
तेहिं+++(=तस्मै)+++ सब कही, साप कै बाता॥3॥
मूल
सङ्कुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पञ्चानन॥
आवत पन्थ कबन्ध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता॥3॥
भावार्थ
वह सघन वन लताओं और वृक्षों से भरा है। उसमें बहुत से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह रहते हैं। श्री रामजी ने रास्ते में आते हुए कबन्ध राक्षस को मार डाला। उसने अपने शाप की सारी बात कही॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा।
प्रभु पद पेखि+++(=प्रेक्षि)+++ मिटा सो पापा॥
+++(रामेणोक्तम् -)+++ “सुनु गन्धर्ब कहउँ मैं तोही।
मोहि न सोहाइ+++(=सह्य)+++ ब्रह्मकुल द्रोही”॥4॥
मूल
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा॥
सुनु गन्धर्ब कहउँ मैं तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥4॥
भावार्थ
(वह बोला-) दुर्वासाजी ने मुझे शाप दिया था। अब प्रभु के चरणों को देखने से वह पाप मिट गया। (श्री रामजी ने कहा-) हे गन्धर्व! सुनो, मैं तुम्हें कहता हूँ, ब्राह्मणकुल से द्रोह करने वाला मुझे नहीं सुहाता॥4॥