01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
मूल
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
भावार्थ
हे तात! सीता हरण की बात आप जाकर पिताजी से न कहिएगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा॥31॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥
मूल
गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥
भावार्थ
जटायु ने गीध की देह त्यागकर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और (दिव्य) पीताम्बर पहन लिए। श्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएँ हैं और नेत्रों में (प्रेम तथा आनन्द के आँसुओं का) जल भरकर वह स्तुति कर रहा है-॥1॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचण्ड खण्डन चण्ड सर मण्डन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥
मूल
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचण्ड खण्डन चण्ड सर मण्डन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥
भावार्थ
हे रामजी! आपकी जय हो। आपका रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण हैं और सत्य ही गुणों के (माया के) प्रेरक हैं। दस सिर वाले रावण की प्रचण्ड भुजाओं को खण्ड-खण्ड करने के लिए प्रचण्ड बाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जलयुक्त मेघ के समान श्याम शरीर वाले, कमल के समान मुख और (लाल) कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले और भव-भय से छुडाने वाले कृपालु श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिन्द गोपर द्वन्द्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मन्त्र जपन्त सन्त अनन्त जन मन रञ्जनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गञ्जनं॥2॥
मूल
बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिन्द गोपर द्वन्द्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मन्त्र जपन्त सन्त अनन्त जन मन रञ्जनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गञ्जनं॥2॥
भावार्थ
आप अपरिमित बलवाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार), एक अगोचर (अलक्ष्य), गोविन्द (वेद वाक्यों द्वारा जानने योग्य), इन्द्रियों से अतीत, (जन्म-मरण, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि) द्वन्द्वों को हरने वाले, विज्ञान की घनमूर्ति और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो सन्त राम मन्त्र को जपते हैं, उन अनन्त सेवकों के मन को आनन्द देने वाले हैं। उन निष्कामप्रिय (निष्कामजनों के प्रेमी अथवा उन्हें प्रिय) तथा काम आदि दुष्टों (दुष्ट वृत्तियों) के दल का दलन करने वाले श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहि श्रुति निरञ्जन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कन्द सोभा बृन्द अग जग मोहई।
मम हृदय पङ्कज भृङ्ग अङ्ग अनङ्ग बहु छबि सोहई॥3॥
मूल
जेहि श्रुति निरञ्जन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कन्द सोभा बृन्द अग जग मोहई।
मम हृदय पङ्कज भृङ्ग अङ्ग अनङ्ग बहु छबि सोहई॥3॥
भावार्थ
जिनको श्रुतियाँ निरञ्जन (माया से परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्मरहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं। वे ही करुणाकन्द, शोभा के समूह (स्वयं श्री भगवान्) प्रकट होकर जड-चेतन समस्त जगत् को मोहित कर रहे हैं। मेरे हृदय कमल के भ्रमर रूप उनके अङ्ग-अङ्ग में बहुत से कामदेवों की छवि शोभा पा रही है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यन्ति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास सन्तत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
मूल
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यन्ति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास सन्तत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
भावार्थ
जो अगम और सुगम हैं, निर्मल स्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शान्त) हैं। मन और इन्द्रियों को सदा वश में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं। वे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्री रामजी निरन्तर अपने दासों के वश में रहते हैं। वे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमन को मिटाने वाली है॥4॥