01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥1॥
मूल
हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥1॥
भावार्थ
सीताजी को बहुत प्रकार से भय और प्रीति दिखलाकर जब वह दुष्ट हार गया, तब उन्हें यत्न कराके (सब व्यवस्था ठीक कराके) अशोक वृक्ष के नीचे रख दिया॥1॥
नवाह्नपारायण, छठा विश्राम
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहि बिधि कपट कुरङ्ग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥2॥
मूल
नवाह्नपारायण, छठा विश्राम
जेहि बिधि कपट कुरङ्ग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥2॥
भावार्थ
जिस प्रकार कपट मृग के साथ श्री रामजी दौड चले थे, उसी छवि को हृदय में रखकर वे हरिनाम (रामनाम) रटती रहती हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिन्ता कीन्हि बिसेषी॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥
मूल
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिन्ता कीन्हि बिसेषी॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥
भावार्थ
(इधर) श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को आते देखकर ब्राह्य रूप में बहुत चिन्ता की (और कहा-) हे भाई! तुमने जानकी को अकेली छोड दिया और मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन कर यहाँ चले आए!॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥2॥
मूल
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥2॥
भावार्थ
राक्षसों के झुण्ड वन में फिरते रहते हैं। मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं है। छोटे भाई लक्ष्मणजी ने श्री रामजी के चरणकमलों को पकडकर हाथ जोडकर कहा- हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥3॥
मूल
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥3॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामजी वहाँ गए, जहाँ गोदावरी के तट पर उनका आश्रम था। आश्रम को जानकीजी से रहित देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्य की भाँति व्याकुल और दीन (दुःखी) हो गए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
मूल
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
भावार्थ
(वे विलाप करने लगे-) हा गुणों की खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! लक्ष्मणजी ने बहुत प्रकार से समझाया। तब श्री रामजी लताओं और वृक्षों की पङ्क्तियों से पूछते हुए चले॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खञ्जन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
मूल
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खञ्जन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
भावार्थ
हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पङ्क्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खञ्जन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल,॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुन्द कली दाडिम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
मूल
कुन्द कली दाडिम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
भावार्थ
कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद् का चन्द्रमा और नागिनी, अरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज और सिंह- ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्री फल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न सङ्क सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥7॥
मूल
श्री फल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न सङ्क सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥7॥
भावार्थ
बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मन में जरा भी शङ्का और सङ्कोच नहीं है। हे जानकी! सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे अङ्गों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं)॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
मूल
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
भावार्थ
तुमसे यह अनख (स्पर्धा) कैसे सही जाती है? हे प्रिये! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? इस प्रकार (अनन्त ब्रह्माण्डों के अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्री सीताजी के) स्वामी श्री रामजी सीताजी को खोजते हुए (इस प्रकार) विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यन्त कामी पुरुष हो॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
मूल
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
भावार्थ
पूर्णकाम, आनन्द की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री रामजी मनुष्यों के चरित्र कर रहे हैं। आगे (जाने पर) उन्होन्ने गृध्रपति जटायु को पडा देखा। वह श्री रामजी के चरणों का स्मरण कर रहा था, जिनमें (ध्वजा, कुलिश आदि की) रेखाएँ (चिह्न) हैं॥9॥