28

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधवन्त तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥

मूल

क्रोधवन्त तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥

भावार्थ

फिर क्रोध में भरकर रावण ने सीताजी को रथ पर बैठा लिया और वह बडी उतावली के साथ आकाश मार्ग से चला, किन्तु डर के मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था॥28॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥

मूल

हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥

भावार्थ

(सीताजी विलाप कर रही थीं-) हा जगत के अद्वितीय वीर श्री रघुनाथजी! आपने किस अपराध से मुझ पर दया भुला दी। हे दुःखों के हरने वाले, हे शरणागत को सुख देने वाले, हा रघुकुल रूपी कमल के सूर्य!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥

मूल

हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥

भावार्थ

हा लक्ष्मण! तुम्हारा दोष नहीं है। मैन्ने क्रोध किया, उसका फल पाया। श्री जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं- (हाय!) प्रभु की कृपा तो बहुत है, परन्तु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गए हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥

मूल

बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥

भावार्थ

प्रभु को मेरी यह विपत्ति कौन सुनावे? यज्ञ के अन्न को गदहा खाना चाहता है। सीताजी का भारी विलाप सुनकर जड-चेतन सभी जीव दुःखी हो गए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥4॥

मूल

गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥4॥

भावार्थ

गृध्रराज जटायु ने सीताजी की दुःखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्रजी की पत्नी हैं। (उसने देखा कि) नीच राक्षस इनको (बुरी तरह) लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय म्लेच्छ के पाले पड गई हो॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा॥
धावा क्रोधवन्त खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥5॥

मूल

सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा॥
धावा क्रोधवन्त खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥5॥

भावार्थ

(वह बोला-) हे सीते पुत्री! भय मत कर। मैं इस राक्षस का नाश करूँगा। (यह कहकर) वह पक्षी क्रोध में भरकर ऐसे दौडा, जैसे पर्वत की ओर वज्र छूटता हो॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे रे दुष्ट ठाढ किन हो ही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही॥
आवत देखि कृतान्त समाना। फिरि दसकन्धर कर अनुमाना॥6॥

मूल

रे रे दुष्ट ठाढ किन हो ही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही॥
आवत देखि कृतान्त समाना। फिरि दसकन्धर कर अनुमाना॥6॥

भावार्थ

(उसने ललकारकर कहा-) रे रे दुष्ट! खडा क्यों नहीं होता? निडर होकर चल दिया! मुझे तूने नहीं जाना? उसको यमराज के समान आता हुआ देखकर रावण घूमकर मन में अनुमान करने लगा-॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँडिहि देहा॥7॥

मूल

की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँडिहि देहा॥7॥

भावार्थ

यह या तो मैनाक पर्वत है या पक्षियों का स्वामी गरुड। पर वह (गरुड) तो अपने स्वामी विष्णु सहित मेरे बल को जानता है! (कुछ पास आने पर) रावण ने उसे पहचान लिया (और बोला-) यह तो बूढा जटायु है। यह मेरे हाथ रूपी तीर्थ में शरीर छोडेगा॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥8॥

मूल

सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥8॥

भावार्थ

यह सुनते ही गीध क्रोध में भरकर बडे वेग से दौडा और बोला- रावण! मेरी सिखावन सुन। जानकीजी को छोडकर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले! ऐसा होगा कि-॥8॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥9॥

मूल

राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥9॥

भावार्थ

श्री रामजी के क्रोध रूपी अत्यन्त भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिङ्गा (होकर भस्म) हो जाएगा। योद्धा रावण कुछ उत्तर नहीं देता। तब गीध क्रोध करके दौडा॥9॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दण्ड एक भइ मुरुछा तेही॥10॥

मूल

धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दण्ड एक भइ मुरुछा तेही॥10॥

भावार्थ

उसने (रावण के) बाल पकडकर उसे रथ के नीचे उतार लिया, रावण पृथ्वी पर गिर पडा। गीध सीताजी को एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोञ्चों से मार-मारकर रावण के शरीर को विदीर्ण कर डाला। इससे उसे एक घडी के लिए मूर्च्छा हो गई॥10॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढेसि परम कराल कृपाना॥
काटेसि पङ्ख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥11॥

मूल

तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढेसि परम कराल कृपाना॥
काटेसि पङ्ख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥11॥

भावार्थ

तब खिसियाए हुए रावण ने क्रोधयुक्त होकर अत्यन्त भयानक कटार निकाली और उससे जटायु के पङ्ख काट डाले। पक्षी (जटायु) श्री रामजी की अद्भुत लीला का स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पडा॥11॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतहि जान चढाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी॥
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥12॥

मूल

सीतहि जान चढाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी॥
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥12॥

भावार्थ

सीताजी को फिर रथ पर चढाकर रावण बडी उतावली के साथ चला। उसे भय कम न था। सीताजी आकाश में विलाप करती हुई जा रही हैं। मानो व्याधे के वश में पडी हुई (जाल में फँसी हुई) कोई भयभीत हिरनी हो!॥12॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥13॥

मूल

गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥13॥

भावार्थ

पर्वत पर बैठे हुए बन्दरों को देखकर सीताजी ने हरिनाम लेकर वस्त्र डाल दिया। इस प्रकार वह सीताजी को ले गया और उन्हें अशोक वन में जा रखा॥13॥