27

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिपुल सुमर सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबन्धु रघुनाथ॥27॥

मूल

बिपुल सुमर सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबन्धु रघुनाथ॥27॥

भावार्थ

देवता बहुत से फूल बरसा रहे हैं और प्रभु के गुणों की गाथाएँ (स्तुतियाँ) गा रहे हैं (कि) श्री रघुनाथजी ऐसे दीनबन्धु हैं कि उन्होन्ने असुर को भी अपना परम पद दे दिया॥27॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥

मूल

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥

भावार्थ

दुष्ट मारीच को मारकर श्री रघुवीर तुरन्त लौट पडे। हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे रहा है। इधर जब सीताजी ने दुःखभरी वाणी (मरते समय मारीच की ‘हा लक्ष्मण’ की आवाज) सुनी तो वे बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मणजी से कहने लगीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाहु बेगि सङ्कट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ सङ्कट परइ कि सोई॥2॥

मूल

जाहु बेगि सङ्कट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ सङ्कट परइ कि सोई॥2॥

भावार्थ

तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बडे सङ्कट में हैं। लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे माता! सुनो, जिनके भ्रृकुटि विलास (भौं के इशारे) मात्र से सारी सृष्टि का लय (प्रलय) हो जाता है, वे श्री रामजी क्या कभी स्वप्न में भी सङ्कट में पड सकते हैं?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौम्पि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥

मूल

मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौम्पि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥

भावार्थ

इस पर जब सीताजी कुछ मर्म वचन (हृदय में चुभने वाले वचन) कहने लगीं, तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मणजी का मन भी चञ्चल हो उठा। वे श्री सीताजी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौम्पकर वहाँ चले, जहाँ रावण रूपी चन्द्रमा के लिए राहु रूप श्री रामजी थे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सून बीच दसकन्धर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥

मूल

सून बीच दसकन्धर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥

भावार्थ

रावण सूना मौका देखकर यति (सन्न्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नीन्द नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भडिहाईं॥
इमि कुपन्थ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥

मूल

सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भडिहाईं॥
इमि कुपन्थ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥

भावार्थ

वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भडिहाई (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुडजी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँडों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे ‘भडिहाई’ कहते हैं।
नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥

मूल

सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँडों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे ‘भडिहाई’ कहते हैं।
नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥

भावार्थ

रावण ने अनेकों प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजी ने कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढा॥7॥

मूल

तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढा॥7॥

भावार्थ

तब रावण ने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं। उन्होन्ने गहरा धीरज धरकर कहा- ‘अरे दुष्ट! खडा तो रह, प्रभु आ गए’॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बन्दि सुख माना॥8॥

मूल

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बन्दि सुख माना॥8॥

भावार्थ

जैसे सिंह की स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू (मेरी चाह करके) काल के वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वन्दना करके सुख माना॥8॥