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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कन्द।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृन्द॥23॥

मूल

लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कन्द।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृन्द॥23॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी जब कन्द-मूल-फल लेने के लिए वन में गए, तब (अकेले में) कृपा और सुख के समूह श्री रामचन्द्रजी हँसकर जानकीजी से बोले-॥23॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥

मूल

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥

भावार्थ

हे प्रिये! हे सुन्दर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥

मूल

जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥

भावार्थ

श्री रामजी ने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही श्री सीताजी प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा गईं। सीताजी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥

मूल

लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥

भावार्थ

भगवान ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्य को लक्ष्मणजी ने भी नहीं जाना। स्वार्थ परायण और नीच रावण वहाँ गया, जहाँ मारीच था और उसको सिर नवाया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अङ्कुस धनु उरग बिलाई॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥

मूल

नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अङ्कुस धनु उरग बिलाई॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥

भावार्थ

नीच का झुकना (नम्रता) भी अत्यन्त दुःखदायी होता है। जैसे अङ्कुश, धनुष, साँप और बिल्ली का झुकना। हे भवानी! दुष्ट की मीठी वाणी भी (उसी प्रकार) भय देने वाली होती है, जैसे बिना ऋतु के फूल!॥4॥