21

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥1॥

मूल

रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥1॥

भावार्थ

शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिए। ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकार से विलाप करके रोने लगी॥1॥

02 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकन्धर मोरि कि असि गति होइ॥2॥

मूल

सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकन्धर मोरि कि असि गति होइ॥2॥

भावार्थ

(रावण की) सभा के बीच वह व्याकुल होकर पडी हुई बहुत प्रकार से रो-रोकर कह रही है कि अरे दशग्रीव! तेरे जीते जी मेरी क्या ऐसी दशा होनी चाहिए?॥2॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लङ्केस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥

मूल

सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लङ्केस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥

भावार्थ

शूर्पणखा के वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। उन्होन्ने शूर्पणखा की बाँह पकडकर उसे उठाया और समझाया। लङ्कापति रावण ने कहा- अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक-कान काट लिए?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिङ्घ बन खेलन आए॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥

मूल

अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिङ्घ बन खेलन आए॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥

भावार्थ

(वह बोली-) अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र, जो पुरुषों में सिंह के समान हैं, वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी समझ पडी है कि वे पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर देङ्गे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥

मूल

जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥

भावार्थ

जिनकी भुजाओं का बल पाकर हे दशमुख! मुनि लोग वन में निर्भय होकर विचरने लगे हैं। वे देखने में तो बालक हैं, पर हैं काल के समान। वे परम धीर, श्रेष्ठ धनुर्धर और अनेकों गुणों से युक्त हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के सङ्ग नारि एक स्यामा॥4॥

मूल

अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के सङ्ग नारि एक स्यामा॥4॥

भावार्थ

दोनों भाइयों का बल और प्रताप अतुलनीय है। वे दुष्टों का वध करने में लगे हैं और देवता तथा मुनियों को सुख देने वाले हैं। वे शोभा के धाम हैं, ‘राम’ ऐसा उनका नाम है। उनके साथ एक तरुणी सुन्दर स्त्री है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥

मूल

रूप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥

भावार्थ

विधाता ने उस स्त्री को ऐसी रूप की राशि बनाया है कि सौ करोड रति (कामदेव की स्त्री) उस पर निछावर हैं। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहिन हूँ, यह सुनकर वे मेरी हँसी करने लगे॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥

मूल

खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥

भावार्थ

मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण सहायता करने आए। पर उन्होन्ने क्षण भर में सारी सेना को मार डाला। खर-दूषन और त्रिशिरा का वध सुनकर रावण के सारे अङ्ग जल उठे॥6॥