01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥1॥
मूल
राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥1॥
भावार्थ
सब (‘यही राम है, इसे मारो’ इस प्रकार) राम-राम कहकर शरीर छोडते हैं और निर्वाण (मोक्ष) पद पाते हैं। कृपानिधान श्री रामजी ने यह उपाय करके क्षण भर में शत्रुओं को मार डाला॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥2॥
मूल
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥2॥
भावार्थ
देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैं, आकाश में नगाडे बज रहे हैं। फिर वे सब स्तुति कर-करके अनेकों विमानों पर सुशोभित हुए चले गए॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥
मूल
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥
भावार्थ
जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी को ले आए। चरणों में पडते हुए उनको प्रभु ने प्रसन्नतापूर्वक उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पञ्चबटीं बसि श्री रघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥
मूल
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पञ्चबटीं बसि श्री रघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥
भावार्थ
सीताजी श्री रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं। इस प्रकार पञ्चवटी में बसकर श्री रघुनाथजी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले चरित्र करने लगे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥
मूल
धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥
भावार्थ
खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भडकाया। वह बडा क्रोध करके वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढें किएँ अरु पाएँ॥
सङ्ग तें जती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
मूल
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढें किएँ अरु पाएँ॥
सङ्ग तें जती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
भावार्थ
शराब पी लेता है और दिन-रात पडा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खडा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के सङ्ग से सन्न्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा,॥4-5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥
मूल
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥
भावार्थ
नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहङ्कार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैन्ने सुनी है॥6॥