01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाँति॥1॥
मूल
सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाँति॥1॥
भावार्थ
फिर वे शत्रु को बलवान् जानकर सावधान होकर दौडे और श्री रामचन्द्रजी के ऊपर बहुत प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँडे निज तीर॥2॥
मूल
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँडे निज तीर॥2॥
भावार्थ
श्री रघुवीरजी ने उनके हथियारों को तिल के समान (टुकडे-टुकडे) करके काट डाला। फिर धनुष को कान तक तानकर अपने तीर छोडे॥2॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब चले बान कराल। फुङ्करत जनु बहु ब्याल॥
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥
मूल
तब चले बान कराल। फुङ्करत जनु बहु ब्याल॥
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥
भावार्थ
तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत से सर्प जा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी सङ्ग्राम में क्रुद्ध हुए और अत्यन्त तीक्ष्ण बाण चले॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥2॥
मूल
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥2॥
भावार्थ
अत्यन्त तीक्ष्ण बाणों को देखकर राक्षस वीर पीठ दिखाकर भाग चले। तब खर-दूषण और त्रिशिरा तीनों भाई क्रुद्ध होकर बोले- जो रण से भागकर जाएगा,॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि॥
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥3॥
मूल
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि॥
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥3॥
भावार्थ
उसका हम अपने हाथों वध करेङ्गे। तब मन में मरना ठानकर भागते हुए राक्षस लौट पडे और सामने होकर वे अनेकों प्रकार के हथियारों से श्री रामजी पर प्रहार करने लगे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर सन्धानि॥
छाँडे बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥4॥
मूल
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर सन्धानि॥
छाँडे बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥4॥
भावार्थ
शत्रु को अत्यन्त कुपित जानकर प्रभु ने धनुष पर बाण चढाकर बहुत से बाण छोडे, जिनसे भयानक राक्षस कटने लगे॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन॥
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥5॥
मूल
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन॥
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥5॥
भावार्थ
उनकी छाती, सिर, भुजा, हाथ और पैर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिरने लगे। बाण लगते ही वे हाथी की तरह चिङ्ग्घाडते हैं। उनके पहाड के समान धड कट-कटकर गिर रहे हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भट कटत तन सत खण्ड। पुनि उठत करि पाषण्ड॥
नभ उडत बहु भुज मुण्ड। बिनु मौलि धावत रुण्ड॥6॥
मूल
भट कटत तन सत खण्ड। पुनि उठत करि पाषण्ड॥
नभ उडत बहु भुज मुण्ड। बिनु मौलि धावत रुण्ड॥6॥
भावार्थ
योद्धाओं के शरीर कटकर सैकडों टुकडे हो जाते हैं। वे फिर माया करके उठ खडे होते हैं। आकाश में बहुत सी भुजाएँ और सिर उड रहे हैं तथा बिना सिर के धड दौड रहे हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खग कङ्क काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल॥7॥
मूल
खग कङ्क काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल॥7॥
भावार्थ
चील (या क्रौञ्च), कौए आदि पक्षी और सियार कठोर और भयङ्कर कट-कट शब्द कर रहे हैं॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
कटकटहिं जम्बुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर सञ्चहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नञ्चहीं॥
रघुबीर बान प्रचण्ड खण्डहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयङ्कर गिरा॥1॥
मूल
कटकटहिं जम्बुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर सञ्चहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नञ्चहीं॥
रघुबीर बान प्रचण्ड खण्डहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयङ्कर गिरा॥1॥
भावार्थ
सियार कटकटाते हैं, भूत, प्रेत और पिशाच खोपडियाँ बटोर रहे हैं (अथवा खप्पर भर रहे हैं)। वीर-वैताल खोपडियों पर ताल दे रहे हैं और योगिनियाँ नाच रही हैं। श्री रघुवीर के प्रचण्ड बाण योद्धाओं के वक्षःस्थल, भुजा और सिरों के टुकडे-टुकडे कर डालते हैं। उनके धड जहाँ-तहाँ गिर पडते हैं, फिर उठते और लडते हैं और ‘पकडो-पकडो’ का भयङ्कर शब्द करते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तावरीं गहि उडत गीध पिसाच कर गहि धावहीं।
सङ्ग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुडी उडावहीं॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥2॥
मूल
अन्तावरीं गहि उडत गीध पिसाच कर गहि धावहीं।
सङ्ग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुडी उडावहीं॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥2॥
भावार्थ
अन्तडियों के एक छोर को पकडकर गीध उडते हैं और उन्हीं का दूसरा छोर हाथ से पकडकर पिशाच दौडते हैं, ऐसा मालूम होता है मानो सङ्ग्राम रूपी नगर के निवासी बहुत से बालक पतङ्ग उडा रहे हों। अनेकों योद्धा मारे और पछाडे गए बहुत से, जिनके हृदय विदीर्ण हो गए हैं, पडे कराह रहे हैं। अपनी सेना को व्याकुल देखर त्रिशिरा और खर-दूषण आदि योद्धा श्री रामजी की ओर मुडे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरसक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥3॥
मूल
सरसक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥3॥
भावार्थ
अनगिनत राक्षस क्रोध करके बाण, शक्ति, तोमर, फरसा, शूल और कृपाण एक ही बार में श्री रघुवीर पर छोडने लगे। प्रभु ने पल भर में शत्रुओं के बाणों को काटकर, ललकारकर उन पर अपने बाण छोडे। सब राक्षस सेनापतियों के हृदय में दस-दस बाण मारे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो।
देखहिं परसपर राम करि सङ्ग्राम रिपु दल लरि मर्यो॥4॥
मूल
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो।
देखहिं परसपर राम करि सङ्ग्राम रिपु दल लरि मर्यो॥4॥
भावार्थ
योद्धा पृथ्वी पर गिर पडते हैं, फिर उठकर भिडते हैं। मरते नहीं, बहुत प्रकार की अतिशय माया रचते हैं। देवता यह देखकर डरते हैं कि प्रेत (राक्षस) चौदह हजार हैं और अयोध्यानाथ श्री रामजी अकेले हैं। देवता और मुनियों को भयभीत देखकर माया के स्वामी प्रभु ने एक बडा कौतुक किया, जिससे शत्रुओं की सेना एक-दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड मरी॥4॥