01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि॥17॥
मूल
लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि॥17॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी ने बडी फुर्ती से उसको बिना नाक-कान की कर दिया। मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दी हो!॥17॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥
मूल
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥
भावार्थ
बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई। (उसके शरीर से रक्त इस प्रकार बहने लगा) मानो (काले) पर्वत से गेरू की धारा बह रही हो। वह विलाप करती हुई खर-दूषण के पास गई (और बोली-) हे भाई! तुम्हारे पौरुष (वीरता) को धिक्कार है, तुम्हारे बल को धिक्कार है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई॥
धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥2॥
मूल
तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई॥
धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥2॥
भावार्थ
उन्होन्ने पूछा, तब शूर्पणखा ने सब समझाकर कहा। सब सुनकर राक्षसों ने सेना तैयार की। राक्षस समूह झुण्ड के झुण्ड दौडे। मानो पङ्खधारी काजल के पर्वतों का झुण्ड हो॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा॥
सूपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥3॥
मूल
नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा॥
सूपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥3॥
भावार्थ
वे अनेकों प्रकार की सवारियों पर चढे हुए तथा अनेकों आकार (सूरतों) के हैं। वे अपार हैं और अनेकों प्रकार के असङ्ख्य भयानक हथियार धारण किए हुए हैं। उन्होन्ने नाक-कान कटी हुई अमङ्गलरूपिणी शूर्पणखा को आगे कर लिया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उडाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥4॥
मूल
असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उडाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥4॥
भावार्थ
अनगिनत भयङ्कर अशकुन हो रहे हैं, परन्तु मृत्यु के वश होने के कारण वे सब के सब उनको कुछ गिनते ही नहीं। गरजते हैं, ललकारते हैं और आकाश में उडते हैं। सेना देखकर योद्धा लोग बहुत ही हर्षित होते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छडाई॥
धूरि पूरि नभ मण्डल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा॥5॥
मूल
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छडाई॥
धूरि पूरि नभ मण्डल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा॥5॥
भावार्थ
कोई कहता है दोनों भाइयों को जीता ही पकड लो, पकडकर मार डालो और स्त्री को छीन लो। आकाशमण्डल धूल से भर गया। तब श्री रामजी ने लक्ष्मणजी को बुलाकर उनसे कहा॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लै जानकिहि जाहु गिरि कन्दर। आवा निसिचर कटकु भयङ्कर॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी॥6॥
मूल
लै जानकिहि जाहु गिरि कन्दर। आवा निसिचर कटकु भयङ्कर॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी॥6॥
भावार्थ
राक्षसों की भयानक सेना आ गई है। जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कन्दरा में चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित चले॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि राम रिपुदल चलि आवा।
बिहसि कठिन कोदण्ड चढावा॥7॥
मूल
देखि राम रिपुदल चलि आवा।
बिहसि कठिन कोदण्ड चढावा॥7॥
भावार्थ
शत्रुओं की सेना (समीप) चली आई है, यह देखकर श्री रामजी ने हँसकर कठिन धनुष को चढाया॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोदण्ड कठिन चढाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषङ्ग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
मूल
कोदण्ड कठिन चढाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषङ्ग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
भावार्थ
कठिन धनुष चढाकर सिर पर जटा का जूडा बाँधते हुए प्रभु कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे मरकतमणि (पन्ने) के पर्वत पर करोडों बिजलियों से दो साँप लड रहे हों। कमर में तरकस कसकर, विशाल भुजाओं में धनुष लेकर और बाण सुधारकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी राक्षसों की ओर देख रहे हैं। मानों मतवाले हाथियों के समूह को (आता) देखकर सिंह (उनकी ओर) ताक रहा हो।