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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बन्ध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥

मूल

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बन्ध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥

भावार्थ

जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो (कर्मानुसार) बन्धन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है॥15॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥

मूल

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥

भावार्थ

धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया है। और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो सन्त होइँ अनुकूला॥2॥

मूल

सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो सन्त होइँ अनुकूला॥2॥

भावार्थ

वह भक्ति स्वतन्त्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधन का सहारा (अपेक्षा) नहीं है। ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब सन्त अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पन्थ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥

मूल

भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पन्थ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥

भावार्थ

अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूँ- यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं। पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यन्त प्रीति हो और वेद की रीति के अनुसार अपने-अपने (वर्णाश्रम के) कर्मों में लगा रहे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥4॥

मूल

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥4॥

भावार्थ

इसका फल, फिर विषयों से वैराग्य होगा। तब (वैराग्य होने पर) मेरे धर्म (भागवत धर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा। तब श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियाँ दृढ होङ्गी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यन्त प्रेम होगा॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्त चरन पङ्कज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ नेमा॥
गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ सेवा॥5॥

मूल

सन्त चरन पङ्कज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ नेमा॥
गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ सेवा॥5॥

भावार्थ

जिसका सन्तों के चरणकमलों में अत्यन्त प्रेम हो, मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ हो,॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दम्भ न जाकें। तात निरन्तर बस मैं ताकें॥6॥

मूल

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दम्भ न जाकें। तात निरन्तर बस मैं ताकें॥6॥

भावार्थ

मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ॥6॥