01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीधराज सै भेण्ट भइ बहु बिधि प्रीति बढाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥13॥
मूल
गीधराज सै भेण्ट भइ बहु बिधि प्रीति बढाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥13॥
भावार्थ
वहाँ गृध्रराज जटायु से भेण्ट हुई। उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढाकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे॥13॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
मूल
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
भावार्थ
जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा से छा गए। वे दिनोन्दिन अधिक सुहावने (मालूम) होने लगे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खग मृग बृन्द अनन्दित रहहीं। मधुप मधुर गुञ्जत छबि लहहीं॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
मूल
खग मृग बृन्द अनन्दित रहहीं। मधुप मधुर गुञ्जत छबि लहहीं॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
भावार्थ
पक्षी और पशुओं के समूह आनन्दित रहते हैं और भौंरे मधुर गुञ्जार करते हुए शोभा पा रहे हैं। जहाँ प्रत्यक्ष श्री रामजी विराजमान हैं, उस वन का वर्णन सर्पराज शेषजी भी नहीं कर सकते॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
मूल
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
भावार्थ
एक बार प्रभु श्री रामजी सुख से बैठे हुए थे। उस समय लक्ष्मणजी ने उनसे छलरहित (सरल) वचन कहे- हे देवता, मनुष्य, मुनि और चराचर के स्वामी! मैं अपने प्रभु की तरह (अपना स्वामी समझकर) आपसे पूछता हूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
मूल
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
भावार्थ
हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोडकर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥4॥