01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इन्दु तन चितवन मानहुँ निकर चकोर॥12॥
मूल
मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इन्दु तन चितवन मानहुँ निकर चकोर॥12॥
भावार्थ
मुनियों के समूह में श्री रामचन्द्रजी सबकी ओर सम्मुख होकर बैठे हैं (अर्थात् प्रत्येक मुनि को श्री रामजी अपने ही सामने मुख करके बैठे दिखाई देते हैं और सब मुनि टकटकी लगाए उनके मुख को देख रहे हैं)। ऐसा जान पडता है मानो चकोरों का समुदाय शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की ओर देख रहा है॥12॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥
मूल
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥
भावार्थ
तब श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे प्रभो! आप से तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारण से आया हूँ, वह आप जानते ही हैं। इसी से हे तात! मैन्ने आपसे समझाकर कुछ नहीं कहा॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब सो मन्त्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥2॥
मूल
अब सो मन्त्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥2॥
भावार्थ
हे प्रभो! अब आप मुझे वही मन्त्र (सलाह) दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया॥3॥
मूल
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया॥3॥
भावार्थ
हे पापों का नाश करने वाले! मैं तो आप ही के भजन के प्रभाव से आपकी कुछ थोडी सी महिमा जानता हूँ। आपकी माया गूलर के विशाल वृक्ष के समान है, अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह ही जिसके फल हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीव चराचर जन्तु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥4॥
मूल
जीव चराचर जन्तु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥4॥
भावार्थ
चर और अचर जीव (गूलर के फल के भीतर रहने वाले छोटे-छोटे) जन्तुओं के समान उन (ब्रह्माण्ड रूपी फलों) के भीतर बसते हैं और वे (अपने उस छोटे से जगत् के सिवा) दूसरा कुछ नहीं जानते। उन फलों का भक्षण करने वाला कठिन और कराल काल है। वह काल भी सदा आपसे भयभीत रहता है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥5॥
मूल
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥5॥
भावार्थ
उन्हीं आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की तरह प्रश्न किया। हे कृपा के धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में (सदा) निवास कीजिए॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबिरल भगति बिरति सतसङ्गा। चरन सरोरुह प्रीति अभङ्गा॥
जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता॥6॥
मूल
अबिरल भगति बिरति सतसङ्गा। चरन सरोरुह प्रीति अभङ्गा॥
जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता॥6॥
भावार्थ
मुझे प्रगाढ भक्ति, वैराग्य, सत्सङ्ग और आपके चरणकमलों में अटूट प्रेम प्राप्त हो। यद्यपि आप अखण्ड और अनन्त ब्रह्म हैं, जो अनुभव से ही जानने में आते हैं और जिनका सन्तजन भजन करते हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥
सन्तत दासन्ह देहु बडाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥7॥
मूल
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥
सन्तत दासन्ह देहु बडाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥7॥
भावार्थ
यद्यपि मैं आपके ऐसे रूप को जानता हूँ और उसका वर्णन भी करता हूँ, तो भी लौट-लौटकर में सगुण ब्रह्म में (आपके इस सुन्दर स्वरूप में) ही प्रेम मानता हूँ। आप सेवकों को सदा ही बडाई दिया करते हैं, इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पञ्चबटी तेहि नाऊँ॥
दण्डक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
मूल
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पञ्चबटी तेहि नाऊँ॥
दण्डक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
भावार्थ
हे प्रभो! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पञ्चवटी है। हे प्रभो! आप दण्डक वन को (जहाँ पञ्चवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पञ्चबटी निअराई॥9॥
मूल
बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पञ्चबटी निअराई॥9॥
भावार्थ
हे रघुकुल के स्वामी! आप सब मुनियों पर दया करके वहीं निवास कीजिए। मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचन्द्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पञ्चवटी के निकट पहुँच गए॥9॥