01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इन्दु इव बसहु सदा निहकाम॥11॥
मूल
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इन्दु इव बसहु सदा निहकाम॥11॥
भावार्थ
हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम (स्थिर) होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चन्द्रमा की भाँति सदा निवास कीजिए॥11॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुम्भज रिषि पासा॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥
मूल
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुम्भज रिषि पासा॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥
भावार्थ
‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा उच्चारण कर लक्ष्मी निवास श्री रामचन्द्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। (तब सुतीक्ष्णजी बोले-) गुरु अगस्त्यजी का दर्शन पाए और इस आश्रम में आए मुझे बहुत दिन हो गए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब प्रभु सङ्ग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए सङ्ग बिहसे द्वौ भाई॥2॥
मूल
अब प्रभु सङ्ग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए सङ्ग बिहसे द्वौ भाई॥2॥
भावार्थ
अब मैं भी प्रभु (आप) के साथ गुरुजी के पास चलता हूँ। इसमें हे नाथ! आप पर मेरा कोई एहसान नहीं है। मुनि की चतुरता देखकर कृपा के भण्डार श्री रामजी ने उनको साथ ले लिया और दोनो भाई हँसने लगे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पन्थ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दण्डवत कहत अस भयऊ॥3॥
मूल
पन्थ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दण्डवत कहत अस भयऊ॥3॥
भावार्थ
रास्ते में अपनी अनुपम भक्ति का वर्णन करते हुए देवताओं के राजराजेश्वर श्री रामजी अगस्त्य मुनि के आश्रम पर पहुँचे। सुतीक्ष्ण तुरन्त ही गुरु अगस्त्य के पास गए और दण्डवत् करके ऐसा कहने लगे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा॥
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥4॥
मूल
नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा॥
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥4॥
भावार्थ
हे नाथ! अयोध्या के राजा दशरथजी के कुमार जगदाधार श्री रामचन्द्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित आपसे मिलने आए हैं, जिनका हे देव! आप रात-दिन जप करते रहते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥5॥
मूल
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥5॥
भावार्थ
यह सुनते ही अगस्त्यजी तुरन्त ही उठ दौडे। भगवान् को देखते ही उनके नेत्रों में (आनन्द और प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। दोनों भाई मुनि के चरण कमलों पर गिर पडे। ऋषि ने (उठाकर) बडे प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिया॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवन्त नहिं दूजा॥6॥
मूल
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवन्त नहिं दूजा॥6॥
भावार्थ
ज्ञानी मुनि ने आदरपूर्वक कुशल पूछकर उनको लाकर श्रेष्ठ आसन पर बैठाया। फिर बहुत प्रकार से प्रभु की पूजा करके कहा- मेरे समान भाग्यवान् आज दूसरा कोई नहीं है॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृन्दा। हरषे सब बिलोकि सुखकन्दा॥7॥
मूल
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृन्दा। हरषे सब बिलोकि सुखकन्दा॥7॥
भावार्थ
वहाँ जहाँ तक (जितने भी) अन्य मुनिगण थे, सभी आनन्दकन्द श्री रामजी के दर्शन करके हर्षित हो गए॥7॥