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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥10॥

मूल

तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥10॥

भावार्थ

तब मुनि ने हृदय में धीरज धरकर बार-बार चरणों को स्पर्श किया। फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की॥10॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥

मूल

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥

भावार्थ

मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है। जैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरन्तर श्रीरघुवीरं॥2॥

मूल

श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरन्तर श्रीरघुवीरं॥2॥

भावार्थ

हे नीलकमल की माला के समान श्याम शरीर वाले! हे जटाओं का मुकुट और मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहने हुए, हाथों में धनुष-बाण लिए तथा कमर में तरकस कसे हुए श्री रामजी! मैं आपको निरन्तर नमस्कार करता हूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोह विपिन घन दहन कृशानुः। सन्त सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रास सदा नो भव खग बाजः॥3॥

मूल

मोह विपिन घन दहन कृशानुः। सन्त सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रास सदा नो भव खग बाजः॥3॥

भावार्थ

जो मोह रूपी घने वन को जलाने के लिए अग्नि हैं, सन्त रूपी कमलों के वन को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य हैं, राक्षस रूपी हाथियों के समूह को पछाडने के लिए सिंह हैं और भव (आवागमन) रूपी पक्षी को मारने के लिए बाज रूप हैं, वे प्रभु सदा हमारी रक्षा करें॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥
हर हृदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥4॥

मूल

अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥
हर हृदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥4॥

भावार्थ

हे लाल कमल के समान नेत्र और सुन्दर वेश वाले! सीताजी के नेत्र रूपी चकोर के चन्द्रमा, शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के बालहंस, विशाल हृदय और भुजा वाले श्री रामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥
भव भञ्जन रञ्जन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥5॥

मूल

संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥
भव भञ्जन रञ्जन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥5॥

भावार्थ

जो संशय रूपी सर्प को ग्रसने के लिए गरुड हैं, अत्यन्त कठोर तर्क से उत्पन्न होने वाले विषाद का नाश करने वाले हैं, आवागमन को मिटाने वाले और देवताओं के समूह को आनन्द देने वाले हैं, वे कृपा के समूह श्री रामजी सदा हमारी रक्षा करें॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भञ्जन महि भारं॥6॥

मूल

निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भञ्जन महि भारं॥6॥

भावार्थ

हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप! हे ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत! हे अनुपम, निर्मल, सम्पूर्ण दोषरहित, अनन्त एवं पृथ्वी का भार उतारने वाले श्री रामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥7॥

मूल

भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥7॥

भावार्थ

जो भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के बगीचे हैं, क्रोध, लोभ, मद और काम को डराने वाले हैं, अत्यन्त ही चतुर और संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सेतु रूप हैं, वे सूर्यकुल की ध्वजा श्री रामजी सदा मेरी रक्षा करें॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभञ्जन नामः॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। सन्तत शं तनोतु मम रामः॥8॥

मूल

अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभञ्जन नामः॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। सन्तत शं तनोतु मम रामः॥8॥

भावार्थ

जिनकी भुजाओं का प्रताप अतुलनीय है, जो बल के धाम हैं, जिनका नाम कलियुग के बडे भारी पापों का नाश करने वाला है, जो धर्म के कवच (रक्षक) हैं और जिनके गुण समूह आनन्द देने वाले हैं, वे श्री रामजी निरन्तर मेरे कल्याण का विस्तार करें॥8॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरन्तर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥9॥

मूल

जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरन्तर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥9॥

भावार्थ

यद्यपि आप निर्मल, व्यापक, अविनाशी और सबके हृदय में निरन्तर निवास करने वाले हैं, तथापि हे खरारि श्री रामजी! लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिए॥9॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अन्तरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10॥

मूल

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अन्तरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10॥

भावार्थ

हे स्वामी! आपको जो सगुण, निर्गुण और अन्तर्यामी जानते हों, वे जाना करें, मेरे हृदय में तो कोसलपति कमलनयन श्री रामजी ही अपना घर बनावें॥10॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥

मूल

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥

भावार्थ

ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्री रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होन्ने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥11॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12॥

मूल

परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12॥

भावार्थ

(और कहा-) हे मुनि! मुझे परम प्रसन्न जानो। जो वर माँगो, वही मैं तुम्हें दूँ! मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- मैन्ने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पडता कि क्या झूठ है और क्या सत्य है, (क्या माँगू, क्या नहीं)॥12॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13॥

मूल

तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13॥

भावार्थ

((अतः) हे रघुनाथजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिए। (श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुने!) तुम प्रगाढ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ॥13॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥14॥

मूल

प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥14॥

भावार्थ

(तब मुनि बोले-) प्रभु ने जो वरदान दिया, वह तो मैन्ने पा लिया। अब मुझे जो अच्छा लगता है, वह दीजिए॥14॥