09

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥

मूल

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥

भावार्थ

श्री रामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जा-जाकर उनको (दर्शन एवं सम्भाषण का) सुख दिया॥9॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥

मूल

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥

भावार्थ

मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों के सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥
हे बिधि दीनबन्धु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥2॥

मूल

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥
हे बिधि दीनबन्धु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने ज्यों ही प्रभु का आगमन कानों से सुन पाया, त्यों ही अनेक प्रकार के मनोरथ करते हुए वे आतुरता (शीघ्रता) से दौड चले। हे विधाता! क्या दीनबन्धु श्री रघुनाथजी मुझ जैसे दुष्ट पर भी दया करेङ्गे?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहित अनुज मोहि राम गोसाईं। मिलिहहिं निज सेवक की नाईं॥
मोरे जियँ भरोस दृढ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥3॥

मूल

सहित अनुज मोहि राम गोसाईं। मिलिहहिं निज सेवक की नाईं॥
मोरे जियँ भरोस दृढ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥3॥

भावार्थ

क्या स्वामी श्री रामजी छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मुझसे अपने सेवक की तरह मिलेङ्गे? मेरे हृदय में दृढ विश्वास नहीं होता, क्योङ्कि मेरे मन में भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहिं सतसङ्ग जोग जप जागा। नहिं दृढ चरन कमल अनुरागा॥
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥4॥

मूल

नहिं सतसङ्ग जोग जप जागा। नहिं दृढ चरन कमल अनुरागा॥
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥4॥

भावार्थ

मैन्ने न तो सत्सङ्ग, योग, जप अथवा यज्ञ ही किए हैं और न प्रभु के चरणकमलों में मेरा दृढ अनुराग ही है। हाँ, दया के भण्डार प्रभु की एक बान है कि जिसे किसी दूसरे का सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पङ्कज भव मोचन॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥5॥

मूल

होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पङ्कज भव मोचन॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥5॥

भावार्थ

(भगवान की इस बान का स्मरण आते ही मुनि आनन्दमग्न होकर मन ही मन कहने लगे-) अहा! भव बन्धन से छुडाने वाले प्रभु के मुखारविन्द को देखकर आज मेरे नेत्र सफल होङ्गे। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! ज्ञानी मुनि प्रेम में पूर्ण रूप से निमग्न हैं। उनकी वह दशा कही नहीं जाती॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिसि अरु बिदिसि पन्थ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥6॥

मूल

दिसि अरु बिदिसि पन्थ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥6॥

भावार्थ

उन्हें दिशा-विदिशा (दिशाएँ और उनके कोण आदि) और रास्ता, कुछ भी नहीं सूझ रहा है। मैं कौन हूँ और कहाँ जा रहा हूँ, यह भी नहीं जानते (इसका भी ज्ञान नहीं है)। वे कभी पीछे घूमकर फिर आगे चलने लगते हैं और कभी (प्रभु के) गुण गा-गाकर नाचने लगते हैं॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥7॥

मूल

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥7॥

भावार्थ

मुनि ने प्रगाढ प्रेमाभक्ति प्राप्त कर ली। प्रभु श्री रामजी वृक्ष की आड में छिपकर (भक्त की प्रेमोन्मत्त दशा) देख रहे हैं। मुनि का अत्यन्त प्रेम देखकर भवभय (आवागमन के भय) को हरने वाले श्री रघुनाथजी मुनि के हृदय में प्रकट हो गए॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए॥8॥

मूल

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए॥8॥

भावार्थ

(हृदय में प्रभु के दर्शन पाकर) मुनि बीच रास्ते में अचल (स्थिर) होकर बैठ गए। उनका शरीर रोमाञ्च से कटहल के फल के समान (कण्टकित) हो गया। तब श्री रघुनाथजी उनके पास चले आए और अपने भक्त की प्रेम दशा देखकर मन में बहुत प्रसन्न हुए॥8॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥
भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥9॥

मूल

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥
भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥9॥

भावार्थ

श्री रामजी ने मुनि को बहुत प्रकार से जगाया, पर मुनि नहीं जागे, क्योङ्कि उन्हें प्रभु के ध्यान का सुख प्राप्त हो रहा था। तब श्री रामजी ने अपने राजरूप को छिपा लिया और उनके हृदय में अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया॥9॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनिबर जैसें॥
आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥10॥

मूल

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनिबर जैसें॥
आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥10॥

भावार्थ

तब (अपने ईष्ट स्वरूप के अन्तर्धान होते ही) मुनि ऐसे व्याकुल होकर उठे, जैसे श्रेष्ठ (मणिधर) सर्प मणि के बिना व्याकुल हो जाता है। मुनि ने अपने सामने सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्यामसुन्दर विग्रह सुखधाम श्री रामजी को देखा॥10॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बडभागी॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥11॥

मूल

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बडभागी॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥11॥

भावार्थ

प्रेम में मग्न हुए वे बडभागी श्रेष्ठ मुनि लाठी की तरह गिरकर श्री रामजी के चरणों में लग गए। श्री रामजी ने अपनी विशाल भुजाओं से पकडकर उन्हें उठा लिया और बडे प्रेम से हृदय से लगा रखा॥11॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेण्ट तमाला॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढा॥12॥

मूल

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेण्ट तमाला॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढा॥12॥

भावार्थ

कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुनि से मिलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो सोने के वृक्ष से तमाल का वृक्ष गले लगकर मिल रहा हो। मुनि (निस्तब्ध) खडे हुए (टकटकी लगाकर) श्री रामजी का मुख देख रहे हैं, मानो चित्र में लिखकर बनाए गए हों॥12॥