01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि राम मुख पङ्कज मुनिबर लोचन भृङ्ग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभङ्ग॥7॥
मूल
देखि राम मुख पङ्कज मुनिबर लोचन भृङ्ग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभङ्ग॥7॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी का मुखकमल देखकर मुनिश्रेष्ठ के नेत्र रूपी भौंरे अत्यन्त आदरपूर्वक उसका (मकरन्द रस) पान कर रहे हैं। शरभङ्गजी का जन्म धन्य है॥7॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। सङ्कर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरञ्चि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥
मूल
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। सङ्कर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरञ्चि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥
भावार्थ
मुनि ने कहा- हे कृपालु रघुवीर! हे शङ्करजी मन रूपी मानसरोवर के राजहंस! सुनिए, मैं ब्रह्मलोक को जा रहा था। (इतने में) कानों से सुना कि श्री रामजी वन में आवेङ्गे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितवत पन्थ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुडानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥
मूल
चितवत पन्थ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुडानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥
भावार्थ
तब से मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥3॥
मूल
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥3॥
भावार्थ
हे देव! यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नहीं है। हे भक्त-मनचोर! ऐसा करके आपने अपने प्रण की ही रक्षा की है। अब इस दीन के कल्याण के लिए तब तक यहाँ ठहरिए, जब तक मैं शरीर छोडकर आपसे (आपके धाम में न) मिलूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभङ्गा। बैठे हृदयँ छाडि सब सङ्गा॥4॥
मूल
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभङ्गा। बैठे हृदयँ छाडि सब सङ्गा॥4॥
भावार्थ
योग, यज्ञ, जप, तप जो कुछ व्रत आदि भी मुनि ने किया था, सब प्रभु को समर्पण करके बदले में भक्ति का वरदान ले लिया। इस प्रकार (दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके फिर) चिता रचकर मुनि शरभङ्गजी हृदय से सब आसक्ति छोडकर उस पर जा बैठे॥4॥