05

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥1॥

मूल

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥1॥

भावार्थ

स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। (पतिव्रत धर्म के कारण ही) आज भी ‘तुलसीजी’ भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥2॥

मूल

सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥2॥

भावार्थ

हे सीता! सुनो, तुम्हारा तो नाम ही ले-लेकर स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करेङ्गी। तुम्हें तो श्री रामजी प्राणों के समान प्रिय हैं, यह (पतिव्रत धर्म की) कथा तो मैन्ने संसार के हित के लिए कही है॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥

मूल

सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥

भावार्थ

जानकीजी ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया। तब कृपा की खान श्री रामजी ने मुनि से कहा- आज्ञा हो तो अब दूसरे वन में जाऊँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्तत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरन्धर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥2॥

मूल

सन्तत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरन्धर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥2॥

भावार्थ

मुझ पर निरन्तर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोडिएगा। धर्म धुरन्धर प्रभु श्री रामजी के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक बोले-॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बन्धु मृदु बचन उचारे॥3॥

मूल

जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बन्धु मृदु बचन उचारे॥3॥

भावार्थ

ब्रह्मा, शिव और सनकादि सभी परमार्थवादी (तत्ववेत्ता) जिनकी कृपा चाहते हैं, हे रामजी! आप वही निष्काम पुरुषों के भी प्रिय और दीनों के बन्धु भगवान हैं, जो इस प्रकार कोमल वचन बोल रहे हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥4॥

मूल

अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥4॥

भावार्थ

अब मैन्ने लक्ष्मीजी की चतुराई समझी, जिन्होन्ने सब देवताओं को छोडकर आप ही को भजा। जिसके समान (सब बातों में) अत्यन्त बडा और कोई नहीं है, उसका शील भला, ऐसा क्यों न होगा?॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥

मूल

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥

भावार्थ

मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी! आप अब जाइए? हे नाथ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही कहिए। ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे। मुनि के नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बह रहा है और शरीर पुलकित है॥5॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पङ्कज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥

मूल

तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पङ्कज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥

भावार्थ

मुनि अत्यन्त प्रेम से पूर्ण हैं, उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों को श्री रामजी के मुखकमल में लगाए हुए हैं। (मन में विचार रहे हैं कि) मैन्ने ऐसे कौन से जप-तप किए थे, जिसके कारण मन, ज्ञान, गुण और इन्द्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाए। जप, योग और धर्म समूह से मनुष्य अनुपम भक्ति को पाता है। श्री रघुवीर के पवित्र चरित्र को तुलसीदास रात-दिन गाता है।