01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
मूल
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
भावार्थ
प्रभु आसन पर विराजमान हैं। नेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनि श्रेष्ठ हाथ जोडकर स्तुति करने लगे॥3॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
मूल
नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
भावार्थ
हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरं॥
प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
मूल
निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरं॥
प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
भावार्थ
आप नितान्त सुन्दर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मन्दराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुडाने वाले हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
मूल
प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
भावार्थ
हे प्रभो! आपकी लम्बी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनं॥
मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनं॥4॥
मूल
दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनं॥
मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनं॥4॥
भावार्थ
सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोडने वाले, मुनिराजों और सन्तों को आनन्द देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥
मूल
मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥
भावार्थ
आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वन्दित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥
मूल
नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥
भावार्थ
हे लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति! मैं आपको नमस्कार करता हूँ! हे शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको मैं भजता हूँ॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सराः॥
पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले॥7॥
मूल
त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सराः॥
पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले॥7॥
भावार्थ
जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के सन्देह) रूपी तरङ्गों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पडते)॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्तिते गतिं स्वकं॥8॥
मूल
विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्तिते गतिं स्वकं॥8॥
भावार्थ
जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥
मूल
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥
भावार्थ
उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
मूल
भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
भावार्थ
(तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष (अर्थात् उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले), सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरन्तर भजता हूँ॥10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
मूल
अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
भावार्थ
हे अनुपम सुन्दर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥11॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
मूल
पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं, इसमें सन्देह नहीं॥12॥