02

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाडेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥2॥

मूल

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाडेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥2॥

भावार्थ

उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड दिया। श्री रामजी के समान कृपालु और कौन होगा?॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥

मूल

रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥

भावार्थ

चित्रकूट में बसकर श्री रघुनाथजी ने बहुत से चरित्र किए, जो कानों को अमृत के समान (प्रिय) हैं। फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए हैं, इससे (यहाँ) बडी भीड हो जाएगी॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥2॥

मूल

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥2॥

भावार्थ

(इसलिए) सब मुनियों से विदा लेकर सीताजी सहित दोनों भाई चले! जब प्रभु अत्रिजी के आश्रम में गए, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥3॥

मूल

पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥3॥

भावार्थ

शरीर पुलकित हो गया, अत्रिजी उठकर दौडे। उन्हें दौडे आते देखकर श्री रामजी और भी शीघ्रता से चले आए। दण्डवत करते हुए ही श्री रामजी को (उठाकर) मुनि ने हृदय से लगा लिया और प्रेमाश्रुओं के जल से दोनों जनों को (दोनों भाइयों को) नहला दिया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि राम छबि नयन जुडाने। सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥4॥

मूल

देखि राम छबि नयन जुडाने। सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। तब वे उनको आदरपूर्वक अपने आश्रम में ले आए। पूजन करके सुन्दर वचन कहकर मुनि ने मूल और फल दिए, जो प्रभु के मन को बहुत रुचे॥4॥