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01 श्लोक

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥1॥

मूल

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥1॥

भावार्थ

धर्म रूपी वृक्ष के मूल, विवेक रूपी समुद्र को आनन्द देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्य रूपी कमल के (विकसित करने वाले) सूर्य, पाप रूपी घोर अन्धकार को निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरने वाले, मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि (क्रिया) में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज (आत्मज) तथा कलङ्कनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजी के प्रिय श्री शङ्करजी की मैं वन्दना करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्‌।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥2॥

मूल

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्‌।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥2॥

भावार्थ

जिनका शरीर जलयुक्त मेघों के समान सुन्दर (श्यामवर्ण) एवं आनन्दघन है, जो सुन्दर (वल्कल का) पीत वस्त्र धारण किए हैं, जिनके हाथों में बाण और धनुष हैं, कमर उत्तम तरकस के भार से सुशोभित है, कमल के समान विशाल नेत्र हैं और मस्तक पर जटाजूट धारण किए हैं, उन अत्यन्त शोभायमान श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित मार्ग में चलते हुए आनन्द देने वाले श्री रामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ॥2॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा राम गुन गूढ पण्डित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥

मूल

उमा राम गुन गूढ पण्डित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥

भावार्थ

हे पार्वती! श्री रामजी के गुण गूढ हैं, पण्डित और मुनि उन्हें समझकर वैराग्य प्राप्त करते हैं, परन्तु जो भगवान से विमुख हैं और जिनका धर्म में प्रेम नहीं है, वे महामूढ (उन्हें सुनकर) मोह को प्राप्त होते हैं।

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥

मूल

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥

भावार्थ

पुरवासियों के और भरतजी के अनुपम और सुन्दर प्रेम का मैन्ने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया। अब देवता, मनुष्य और मुनियों के मन को भाने वाले प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वे अत्यन्त पवित्र चरित्र सुनो, जिन्हें वे वन में कर रहे हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर॥2॥

मूल

एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर॥2॥

भावार्थ

एक बार सुन्दर फूल चुनकर श्री रामजी ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुन्दर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीताजी को पहनाए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा॥3॥

मूल

सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा॥3॥

भावार्थ

देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। जैसे महान मन्दबुद्धि चीण्टी समुद्र का थाह पाना चाहती हो॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता चरन चोञ्च हति भागा। मूढ मन्दमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना॥4॥

मूल

सीता चरन चोञ्च हति भागा। मूढ मन्दमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना॥4॥

भावार्थ

वह मूढ, मन्दबुद्धि कारण से (भगवान के बल की परीक्षा करने के लिए) बना हुआ कौआ सीताजी के चरणों में चोञ्च मारकर भागा। जब रक्त बह चला, तब श्री रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर सीङ्क (सरकण्डे) का बाण सन्धान किया॥4॥