324

01 दोहा

राम प्रेम भाजन भरतु बडे न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेङ्क बिबेक बिभूति॥324॥

मूल

राम प्रेम भाजन भरतु बडे न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेङ्क बिबेक बिभूति॥324॥

भावार्थ

फिर भरतजी तो (स्वयं) श्री रामचन्द्रजी के प्रेम के पात्र हैं। वे इस (भोगैश्वर्य त्याग रूप) करनी से बडे नहीं हुए (अर्थात उनके लिए यह कोई बडी बात नहीं है)। (पृथ्वी पर का जल न पीने की) टेक से चातक की और नीर-क्षीर-विवेक की विभूति (शक्ति) से हंस की भी सराहना होती है॥324॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढत धरम दलु मनु न मलीना॥1॥

मूल

देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढत धरम दलु मनु न मलीना॥1॥

भावार्थ

भरतजी का शरीर दिनों-दिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदि से उत्पन्न होने वाला मेद) घट रहा है। बल और मुख छबि (मुख की कान्ति अथवा शोभा) वैसी ही बनी हुई है। राम प्रेम का प्रण नित्य नया और पुष्ट होता है, धर्म का दल बढता है और मन उदास नहीं है (अर्थात प्रसन्न है)॥1॥

संस्कृत कोष में ‘तेज’ का अर्थ मेद मिलता है और यह अर्थ लेने से ‘घटइ’ के अर्थ में भी किसी प्रकार की खीञ्च-तान नहीं करनी पडती।
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे॥
सम दम सञ्जम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा॥2॥

मूल

संस्कृत कोष में ‘तेज’ का अर्थ मेद मिलता है और यह अर्थ लेने से ‘घटइ’ के अर्थ में भी किसी प्रकार की खीञ्च-तान नहीं करनी पडती।
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे॥
सम दम सञ्जम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा॥2॥

भावार्थ

जैसे शरद ऋतु के प्रकाश (विकास) से जल घटता है, किन्तु बेन्त शोभा पाते हैं और कमल विकसित होते हैं। शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरतजी के हृदयरूपी निर्मल आकाश के नक्षत्र (तारागण) हैं॥2॥

ध्रुव बिस्वासु अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा॥3॥

मूल

ध्रुव बिस्वासु अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा॥3॥

भावार्थ

विश्वास ही (उस आकाश में) ध्रुव तारा है, चौदह वर्ष की अवधि (का ध्यान) पूर्णिमा के समान है और स्वामी श्री रामजी की सुरति (स्मृति) आकाशगङ्गा सरीखी प्रकाशित है। राम प्रेम ही अचल (सदा रहने वाला) और कलङ्करहित चन्द्रमा है। वह अपने समाज (नक्षत्रों) सहित नित्य सुन्दर सुशोभित है॥3॥

भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥
बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीं॥4॥

मूल

भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥
बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीं॥4॥

भावार्थ

भरतजी की रहनी, समझ, करनी, भक्ति, वैराग्य, निर्मल, गुण और ऐश्वर्य का वर्णन करने में सभी सुकवि सकुचाते हैं, क्योङ्कि वहाँ (औरों की तो बात ही क्या) स्वयं शेष, गणेश और सरस्वती की भी पहुँच नहीं है॥4॥