317

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार॥317॥

मूल

तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार॥317॥

भावार्थ

वे भी श्री रामजी और भरतजी के उपमारहित अपार प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेक सहित तन, मन, वचन से उस प्रेम में मग्न हो गए॥317॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बडि खोरी॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥1॥

मूल

जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बडि खोरी॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥1॥

भावार्थ

जहाँ जनकजी और गुरु वशिष्ठजी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बडा दोष है। श्री रामचन्द्रजी और भरतजी के वियोग का वर्णन करते सुनकर लोग कवि को कठोर हृदय समझेङ्गे॥1॥

सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी॥
भेण्टि भरतु रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए॥2॥

मूल

सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी॥
भेण्टि भरतु रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए॥2॥

भावार्थ

वह सङ्कोच रस अकथनीय है। अतएव कवि की सुन्दर वाणी उस समय उसके प्रेम को स्मरण करके सकुचा गई। भरतजी को भेण्ट कर श्री रघुनाथजी ने उनको समझाया। फिर हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगा लिया॥2॥

सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा॥3॥

मूल

सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा॥3॥

भावार्थ

सेवक और मन्त्री भरतजी का रुख पाकर सब अपने-अपने काम में जा लगे। यह सुनकर दोनों समाजों में दारुण दुःख छा गया। वे चलने की तैयारियाँ करने लगे॥3॥

प्रभु पद पदुम बन्दि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी॥4॥

मूल

प्रभु पद पदुम बन्दि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी॥4॥

भावार्थ

प्रभु के चरणकमलों की वन्दना करके तथा श्री रामजी की आज्ञा को सिर पर रखकर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले। मुनि, तपस्वी और वनदेवता सबका बार-बार सम्मान करके उनकी विनती की॥4॥