01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ॥316॥
मूल
मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ॥316॥
भावार्थ
भरतजी ने प्रणाम करके विदा माँगी, तब श्री रामचन्द्रजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। इधर कुटिल इन्द्र ने बुरा मौका पाकर लोगों का उच्चाटन कर दिया॥316॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥
नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥1॥
मूल
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥
नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥1॥
भावार्थ
वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई। अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए सञ्जीवनी हो गई। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्ष्मणजी, सीताजी और श्री रामचन्द्रजी के वियोग रूपी बुरे रोग से सब लोग घबडाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते॥1॥
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥
भेण्टत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु न कहि न परत सो॥2॥
मूल
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥
भेण्टत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु न कहि न परत सो॥2॥
भावार्थ
श्री रामजी की कृपा ने सारी उलझन सुधार दी। देवताओं की सेना जो लूटने आई थी, वही गुणदायक (हितकरी) और रक्षक बन गई। श्री रामजी भुजाओं में भरकर भाई भरत से मिल रहे हैं। श्री रामजी के प्रेम का वह रस (आनन्द) कहते नहीं बनता॥2॥
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरन्धर धीरजु त्यागा॥
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी॥3॥
मूल
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरन्धर धीरजु त्यागा॥
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी॥3॥
भावार्थ
तन, मन और वचन तीनों में प्रेम उमड पडा। धीरज की धुरी को धारण करने वाले श्री रघुनाथजी ने भी धीरज त्याग दिया। वे कमल सदृश नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहाने लगे। उनकी यह दशा देखकर देवताओं की सभा (समाज) दुःखी हो गई॥3॥
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से॥
जे बिरञ्चि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए॥4॥
मूल
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से॥
जे बिरञ्चि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए॥4॥
भावार्थ
मुनिगण, गुरु वशिष्ठजी और जनकजी सरीखे धीरधुरन्धर जो अपने मनों को ज्ञान रूपी अग्नि में सोने के समान कस चुके थे, जिनको ब्रह्माजी ने निर्लेप ही रचा और जो जगत् रूपी जल में कमल के पत्ते की तरह ही (जगत् में रहते हुए भी जगत् से अनासक्त) पैदा हुए॥4॥