315

01 दोहा

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥315॥

मूल

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥315॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं- (श्री रामजी ने कहा-) मुखिया मुख के समान होना चाहिए, जो खाने-पीने को तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्वक सब अङ्गों का पालन-पोषण करता है॥315॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
बन्धु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥1॥

मूल

राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
बन्धु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥1॥

भावार्थ

राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्री रघुनाथजी ने भाई भरत को बहुत प्रकार से समझाया, परन्तु कोई अवलम्बन पाए बिना उनके मन में न सन्तोष हुआ, न शान्ति॥1॥

भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥2॥

मूल

भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥2॥

भावार्थ

इधर तो भरतजी का शील (प्रेम) और उधर गुरुजनों, मन्त्रियों तथा समाज की उपस्थिति! यह देखकर श्री रघुनाथजी सङ्कोच तथा स्नेह के विशेष वशीभूत हो गए (अर्थात भरतजी के प्रेमवश उन्हें पाँवरी देना चाहते हैं, किन्तु साथ ही गुरु आदि का सङ्कोच भी होता है।) आखिर (भरतजी के प्रेमवश) प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने कृपा कर खडाऊँ दे दीं और भरतजी ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया॥2॥

चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
सम्पुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥3॥

मूल

चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
सम्पुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥3॥

भावार्थ

करुणानिधान श्री रामचन्द्रजी के दोनों खडाऊँ प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार हैं। भरतजी के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम के दो अक्षर हैं॥3॥

कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के॥
भरत मुदित अवलम्ब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें॥4॥

मूल

कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के॥
भरत मुदित अवलम्ब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें॥4॥

भावार्थ

रघुकुल (की रक्षा) के लिए दो किवाड हैं। कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करने के लिए दो हाथ की भाँति (सहायक) हैं और सेवा रूपी श्रेष्ठ धर्म के सुझाने के लिए निर्मल नेत्र हैं। भरतजी इस अवलम्ब के मिल जाने से परम आनन्दित हैं। उन्हें ऐसा ही सुख हुआ, जैसा श्री सीता-रामजी के रहने से होता है॥4॥