01 दोहा
देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥312॥
मूल
देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥312॥
भावार्थ
भरतजी ने पाँच दिन में सब तीर्थ स्थानों के दर्शन कर लिए। भगवान विष्णु और महादेवजी का सुन्दर यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) दिन भी बीत गया, सन्ध्या हो गई॥312॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥1॥
मूल
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥1॥
भावार्थ
(अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए अच्छा दिन है, यह मन में जानकर भी कृपालु श्री रामजी कहने में सकुचा रहे हैं॥1॥
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची॥2॥
मूल
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची॥2॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी ने गुरु वशिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और सारी सभा की ओर देखा, किन्तु फिर सकुचाकर दृष्टि फेरकर वे पृथ्वी की ओर ताकने लगे। सभा उनके शील की सराहना करके सोचती है कि श्री रामचन्द्रजी के समान सङ्कोची स्वामी कहीं नहीं है॥2॥
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी॥
करि दण्डवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥3॥
मूल
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी॥
करि दण्डवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥3॥
भावार्थ
सुजान भरतजी श्री रामचन्द्रजी का रुख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेष रूप से धीरज धारण कर दण्डवत करके हाथ जोडकर कहने लगे- हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियाँ रखीं॥3॥
मोहि लगि सहेउ सबहिं सन्तापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥4॥
मूल
मोहि लगि सहेउ सबहिं सन्तापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥4॥
भावार्थ
मेरे लिए सब लोगों ने सन्ताप सहा और आपने भी बहुत प्रकार से दुःख पाया। अब स्वामी मुझे आज्ञा दें। मैं जाकर अवधि भर (चौदह वर्ष तक) अवध का सेवन करूँ॥4॥