306

01 दोहा

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥306॥

मूल

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥306॥

भावार्थ

सेवक हाथ, पैर और नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिए। तुलसीदासजी कहते हैं कि सेवक-स्वामी की ऐसी प्रीति की रीति सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते हैं॥306॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥

मूल

सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी की वाणी सुनकर, जो मानो प्रेम रूपी समुद्र के (मन्थन से निकले हुए) अमृत में सनी हुई थी, सारा समाज शिथिल हो गया, सबको प्रेम समाधि लग गई। यह दशा देखकर सरस्वती ने चुप साध ली॥1॥

भरतहि भयउ परम सन्तोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥2॥

मूल

भरतहि भयउ परम सन्तोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥2॥

भावार्थ

भरतजी को परम सन्तोष हुआ। स्वामी के सम्मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोषों ने मुँह मोड लिया (वे उन्हें छोडकर भाग गए)। उनका मुख प्रसन्न हो गया और मन का विषाद मिट गया। मानो गूँगे पर सरस्वती की कृपा हो गई हो॥2॥

कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पङ्करुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥3॥

मूल

कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पङ्करुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥3॥

भावार्थ

उन्होन्ने फिर प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और करकमलों को जोडकर वे बोले- हे नाथ! मुझे आपके साथ जाने का सुख प्राप्त हो गया और मैन्ने जगत में जन्म लेने का लाभ भी पा लिया॥3॥

अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलम्ब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥4॥

मूल

अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलम्ब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥4॥

भावार्थ

हे कृपालु! अब जैसी आज्ञा हो, उसी को मैं सिर पर धर कर आदरपूर्वक करूँ! परन्तु देव! आप मुझे वह अवलम्बन (कोई सहारा) दें, जिसकी सेवा कर मैं अवधि का पार पा जाऊँ (अवधि को बिता दूँ)॥4॥