01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥302॥
मूल
भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥302॥
भावार्थ
भरतजी, जनकजी, मुनिजन, मन्त्री और ज्ञानी साधु-सन्तों को छोडकर अन्य सभी पर जिस मनुष्य को जिस योग्य (जिस प्रकृति और जिस स्थिति का) पाया, उस पर वैसे ही देवमाया लग गई॥302॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपासिन्धु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥
सभा राउ गुर महिसुर मन्त्री। भरत भगति सब कै मति जन्त्री॥1॥
मूल
कृपासिन्धु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥
सभा राउ गुर महिसुर मन्त्री। भरत भगति सब कै मति जन्त्री॥1॥
भावार्थ
कृपासिन्धु श्री रामचन्द्रजी ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज इन्द्र के भारी छल से दुःखी देखा। सभा, राजा जनक, गुरु, ब्राह्मण और मन्त्री आदि सभी की बुद्धि को भरतजी की भक्ति ने कील दिया॥1॥
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥
भरत प्रीति नति बिनय बडाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥2॥
मूल
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥
भरत प्रीति नति बिनय बडाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥2॥
भावार्थ
सब लोग चित्रलिखे से श्री रामचन्द्रजी की ओर देख रहे हैं। सकुचाते हुए सिखाए हुए से वचन बोलते हैं। भरतजी की प्रीति, नम्रता, विनय और बडाई सुनने में सुख देने वाली है, पर उसका वर्णन करने में कठिनता है॥2॥
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥3॥
मूल
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥3॥
भावार्थ
जिनकी भक्ति का लवलेश देखकर मुनिगण और मिथिलेश्वर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए, उन भरतजी की महिमा तुलसीदास कैसे कहे? उनकी भक्ति और सुन्दर भाव से (कवि के) हृदय में सुबुद्धि हुलस रही है (विकसित हो रही है)॥3॥
आपु छोटि महिमा बडि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥4॥
मूल
आपु छोटि महिमा बडि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥4॥
भावार्थ
परन्तु वह बुद्धि अपने को छोटी और भरतजी की महिमा को बडी जानकर कवि परम्परा की मर्यादा को मानकर सकुचा गई (उसका वर्णन करने का साहस नहीं कर सकी)। उसकी गुणों में रुचि तो बहुत है, पर उन्हें कह नहीं सकती। बुद्धि की गति बालक के वचनों की तरह हो गई (वह कुण्ठित हो गई)!॥4॥