299

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥299॥

मूल

यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥299॥

भावार्थ

इस प्रकार अपने सेवकों की (बिगडी) बात सुधारकर और सम्मान देकर आपने उन्हें साधुओं का शिरोमणि बना दिया। कृपालु (आप) के सिवा अपनी विरदावली का और कौन जबर्दस्ती (हठपूर्वक) पालन करेगा?॥299॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥

मूल

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥

भावार्थ

मैं शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी प्रकार से मेरा भला ही माना (मेरे इस अनुचित कार्य को अच्छा ही समझा)॥1॥

देखेउँ पाय सुमङ्गल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।
बडें समाज बिलोकेउँ भागू। बडीं चूक साहिब अनुरागू॥2॥

मूल

देखेउँ पाय सुमङ्गल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।
बडें समाज बिलोकेउँ भागू। बडीं चूक साहिब अनुरागू॥2॥

भावार्थ

मैन्ने सुन्दर मङ्गलों के मूल आपके चरणों का दर्शन किया और यह जान लिया कि स्वामी मुझ पर स्वभाव से ही अनुकूल हैं। इस बडे समाज में अपने भाग्य को देखा कि इतनी बडी चूक होने पर भी स्वामी का मुझ पर कितना अनुराग है!॥2॥

कृपा अनुग्रहु अङ्गु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥3॥

मूल

कृपा अनुग्रहु अङ्गु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥3॥

भावार्थ

कृपानिधान ने मुझ पर साङ्गोपाङ्ग भरपेट कृपा और अनुग्रह, सब अधिक ही किए हैं (अर्थात मैं जिसके जरा भी लायक नहीं था, उतनी अधिक सर्वाङ्गपूर्ण कृपा आपने मुझ पर की है)। हे गोसाईं! आपने अपने शील, स्वभाव और भलाई से मेरा दुलार रखा॥3॥

नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥

मूल

नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! मैन्ने स्वामी और समाज के सङ्कोच को छोडकर अविनय या विनय भरी जैसी रुचि हुई वैसी ही वाणी कहकर सर्वथा ढिठाई की है। हे देव! मेरे आर्तभाव (आतुरता) को जानकर आप क्षमा करेङ्गे॥4॥