01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपाँ भलाईं आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहुँ ओर॥298॥
मूल
कृपाँ भलाईं आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहुँ ओर॥298॥
भावार्थ
हे नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला किया, जिससे मेरे दूषण (दोष) भी भूषण (गुण) के समान हो गए और चारों ओर मेरा सुन्दर यश छा गया॥298॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
राउरि रीति सुबानि बडाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥
कूर कुटिल खल कुमति कलङ्की। नीच निसील निरीस निसङ्की॥1॥
मूल
राउरि रीति सुबानि बडाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥
कूर कुटिल खल कुमति कलङ्की। नीच निसील निरीस निसङ्की॥1॥
भावार्थ
हे नाथ! आपकी रीति और सुन्दर स्वभाव की बडाई जगत में प्रसिद्ध है और वेद-शास्त्रों ने गाई है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कुबुद्धि, कलङ्की, नीच, शीलरहित, निरीश्वरवादी (नास्तिक) और निःशङ्क (निडर) है॥1॥
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥2॥
मूल
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥2॥
भावार्थ
उन्हें भी आपने शरण में सम्मुख आया सुनकर एक बार प्रणाम करने पर ही अपना लिया। उन (शरणागतों) के दोषों को देखकर भी आप कभी हृदय में नहीं लाए और उनके गुणों को सुनकर साधुओं के समाज में उनका बखान किया॥2॥
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥3॥
मूल
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥3॥
भावार्थ
ऐसा सेवक पर कृपा करने वाला स्वामी कौन है, जो आप ही सेवक का सारा साज-सामान सज दे (उसकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर दे) और स्वप्न में भी अपनी कोई करनी न समझकर (अर्थात मैन्ने सेवक के लिए कुछ किया है, ऐसा न जानकर) उलटा सेवक को सङ्कोच होगा, इसका सोच अपने हृदय में रखे!॥3॥
सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥4॥
मूल
सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥4॥
भावार्थ
मैं भुजा उठाकर और प्रण रोपकर (बडे जोर के साथ) कहता हूँ, ऐसा स्वामी आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। (बन्दर आदि) पशु नाचते और तोते (सीखे हुए) पाठ में प्रवीण हो जाते हैं, परन्तु तोते का (पाठ प्रवीणता रूप) गुण और पशु के नाचने की गति (क्रमशः) पढाने वाले और नचाने वाले के अधीन है॥4॥