01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥296॥
मूल
राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥296॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनकजी सकुचा गए (स्तम्भित रह गए)। किसी से उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरतजी का मुँह ताक रहे हैं॥296॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभा सकुच बस भरत निहारी। राम बन्धु धरि धीरजु भारी॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढत बिन्धि जिमि घटज निवारा॥1॥
मूल
सभा सकुच बस भरत निहारी। राम बन्धु धरि धीरजु भारी॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढत बिन्धि जिमि घटज निवारा॥1॥
भावार्थ
भरतजी ने सभा को सङ्कोच के वश देखा। रामबन्धु (भरतजी) ने बडा भारी धीरज धरकर और कुसमय देखकर अपने (उमडते हुए) प्रेम को सम्भाला, जैसे बढते हुए विन्ध्याचल को अगस्त्यजी ने रोका था॥1॥
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥2॥
मूल
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥2॥
भावार्थ
शोक रूपी हिरण्याक्ष ने (सारी सभा की) बुद्धि रूपी पृथ्वी को हर लिया जो विमल गुण समूह रूपी जगत की योनि (उत्पन्न करने वाली) थी। भरतजी के विवेक रूपी विशाल वराह (वराह रूप धारी भगवान) ने (शोक रूपी हिरण्याक्ष को नष्ट कर) बिना ही परिश्रम उसका उद्धार कर दिया!॥2॥
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥3॥
मूल
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥3॥
भावार्थ
भरतजी ने प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोडे तथा श्री रामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु वशिष्ठजी और साधु-सन्त सबसे विनती की और कहा- आज मेरे इस अत्यन्त अनुचित बर्ताव को क्षमा कीजिएगा। मैं कोमल (छोटे) मुख से कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन कह रहा हूँ॥3॥
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पङ्कज आई॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मञ्जु मराली॥4॥
मूल
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पङ्कज आई॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मञ्जु मराली॥4॥
भावार्थ
फिर उन्होन्ने हृदय में सुहावनी सरस्वती का स्मरण किया। वे मानस से (उनके मन रूपी मानसरोवर से) उनके मुखारविन्द पर आ विराजीं। निर्मल विवेक, धर्म और नीति से युक्त भरतजी की वाणी सुन्दर हंसिनी (के समान गुण-दोष का विवेचन करने वाली) है॥4॥