295

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमन्त्र कुठाटु।
रचि प्रपञ्च माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥295॥

मूल

सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमन्त्र कुठाटु।
रचि प्रपञ्च माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥295॥

भावार्थ

मलिन मन वाले स्वार्थी देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यन्त्र) रचा। प्रबल माया-जाल रचकर भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन फैला दिया॥295॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥

मूल

करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥

भावार्थ

कुचाल करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगडना सब भरतजी के हाथ है। इधर राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श्री रघुनाथजी के पास गए। सूर्यकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी ने सबका सम्मान किया,॥1॥

समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा॥
जनक भरत सम्बादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥2॥

मूल

समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा॥
जनक भरत सम्बादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥2॥

भावार्थ

तब रघुकुल के पुरोहित वशिष्ठजी समय, समाज और धर्म के अविरोधी (अर्थात अनुकूल) वचन बोले। उन्होन्ने पहले जनकजी और भरतजी का संवाद सुनाया। फिर भरतजी की कही हुई सुन्दर बातें कह सुनाईं॥2॥

तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥3॥

मूल

तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥3॥

भावार्थ

(फिर बोले-) हे तात राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसा ही सब करें! यह सुनकर दोनों हाथ जोडकर श्री रघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी बोले-॥3॥

बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥4॥

मूल

बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥4॥

भावार्थ

आपके और मिथिलेश्वर जनकजी के विद्यमान रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा (अनुचित) है। आपकी और महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी॥4॥